________________ जैन धर्म एवं दर्शन-403 जैन ज्ञानमीमांसा-111 जाता है। पाश्चात्य-दर्शनों में सत्ता के उस अपरिवर्तनशील पक्ष को Being और परिवर्तनशील पक्ष को Becoming भी कहा गया है। सत्ता का वह पक्ष, जो तीनों कालों में एकरूप रहता है, जिसे द्रव्य भी कहते हैं, उसका बोध द्रव्यार्थिक-नय से होता है और सत्ता का वह पक्ष, जो परिवर्तित होता रहता है, उसे पर्याय कहते है, उसका कथन पर्यायार्थिक-नय ही है। ज्ञान-मीमांसा की दृष्टि से यह परिवर्तनशील पक्ष भी दो रूपों में काम करता है, जिन्हें.स्वभाव-पर्याय और विभाव-पर्याय के रूप में जाना जाता है, जिसमें स्वभाव- पर्यायावस्था को प्राप्त करना ही उसका नैतिक-आदर्श है। स्वभाव-पर्याय तत्त्व के निज गुणों के कारण होती है एवं अन्य तत्त्वों से निरपेक्ष होती है, इसके विपरीत, विभाव-पर्याय अन्य तत्त्व से सापेक्ष विभाव-पर्याय होती है। आत्मा में ज्ञाताद्रष्टा-भाव या ज्ञाताद्रष्टा की अवस्था स्वभावपर्यायरूप होती है। क्रोधादिभाव विभावपर्यायरूप होते हैं। परिवर्तनशील स्वभाव एवं विभाव- पर्यायों का कथन व्यवहारनय होता है, जबकि सत्तारूप आत्मा के ज्ञाताद्रष्टा नामक गुण का कथन निश्चयनय से होता है। नैगम आदि सप्त नय ___ यह वर्गीकरण अपेक्षाकृत एक परवर्ती घटक है। तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यमान्य पाठ में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्दनय - ऐसे पाँच भेद किये गये हैं। ये पाँचों भेद दिगम्बर परम्परा के षट्खण्डागम में भी उल्लेखित हैं। तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यमान्य पाठ में उसके पश्चात् नैगमनय के दो भेद और शब्दनय के दो भेद भी किये गये हैं। परवर्तीकाल में शब्द-नय के इन दो भेदों को मूल-पाठ में समाहित करके सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ में नयों के नैंगम आदि सप्त नयों की चर्चा भी की गई है। दिगम्बर-परम्परा इस सर्वाथसिद्धिमान्य पाठ को आधार मानकर इन सात नयों की ही चर्चा करती है। वर्तमान में तो श्वेताम्बर और दिगम्बर - दोनों ही परम्पराओं में इन सप्तनयों की चर्चा ही मुख्य रूप से मिलती है। इन सात नयों में नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र - इन चार नयों को अर्थनय अर्थात् वस्तुस्वरूप का विवेचन करने वाले और शब्द समभिरूढ़.