________________ जैन धर्म एवं दर्शन-402 ... जैन ज्ञानमीमांसा-110 सत् के आगन्तुक लक्षणों या विभावदशा की सूचक है। सत् के परिवर्तनशील पक्ष का प्रस्तुतिकरण व्यवहारनय का विषय है। व्यवहारनय देश और काल-सापेक्ष है। व्यवहारदृष्टि के अनुसार, आत्मा जन्म भी लेती है और मरती भी है, वह बन्धन में भी आती है और मुक्त भी होती है। आचार-दर्शन के क्षेत्र में व्यवहारनय और निश्चयनय का अन्तर जैन-परम्परा में व्यवहार और निश्चय नामक दो नयों' या दृष्टियों का प्रतिपादन किया जाता है। वे तत्त्वज्ञान और आचारदर्शन - दोनों क्षेत्रों पर लागू होती हैं, फिर भी आचारदर्शन और तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि का प्रतिपादन भिन्न-भिन्न अर्थों में हुआ है। पं. सुखलालजी इस अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जैन-परम्परा में जो निश्चय और व्यवहार-रूप से दो दृष्टियाँ मानी गई हैं, वे तत्त्वज्ञान और आचार - दोनों क्षेत्रों में लागू की गई हैं। सभी भारतीय-दर्शनों की तरह जैन-दर्शन में भी तत्त्वज्ञान और आचार - दोनों का समावेश है। निश्चयनय और व्यवहारनय का प्रयोग तत्त्वज्ञान और आचार - दोनों में होता है, लेकिन सामान्यतः शास्त्राभ्यासी इस अन्तर को जान नहीं पाता। तात्त्विक निश्चयदृष्टि और आचारविषयक-निश्चयदृष्टि - दोनों एक नहीं हैं। यही बात उभयविषयक-व्यवहारदृष्टि की भी है। तात्त्विक- निश्चयदृष्टि शुद्ध निश्चय-दृष्टि है और आचारविषयकनिश्चयदृष्टि अशुद्ध निश्चयनय है। इसी प्रकार, तात्त्विक व्यवहारदृष्टि भी आचार-सम्बन्धी व्यवहारदृष्टि से भिन्न है। यह अन्तर ध्यान में रखना आवश्यक है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक - नय जैनदर्शन के अनुसार, सत्ता अपने आप में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य- युक्त है। उसका ध्रौव्य (स्थायी) पक्ष अपरिवर्तनशील है और उसका उत्पाद-व्यय का पक्ष परिवर्तनशील है। सत्ता के अपरिवर्तनशील पक्ष को द्रव्यार्थिक-नय और परिवर्तनशील पक्ष को पर्यायार्थिक-नय कहा