________________ जैन धर्म एवं दर्शन-399 जैन ज्ञानमीमांसा-107 चर्चा करते हैं, जबकि शब्दादि तीन नय, वस्तु का कथन किस प्रकार से किया गया है - यह बताते हैं। निश्चयनयं और व्यवहारनय 'ज्ञान की प्राप्ति के तीन साधन हैं - (1) अपरोक्षानुभूति, (2) इन्द्रियजन्यानुभूति और (3) बुद्धि। इनमें अपरोक्षानुभूति या आत्मानुभूति निश्चयनय की और इन्द्रियानुभूति या बुद्धि व्यवहारनय की प्रतीक है। तत्त्वमीमांसा में सत् के स्वरूप की व्याख्या प्रमुख रूप से निश्चय और व्यवहार - दो दृष्टिकोणों के आधार पर होती है। जैन-दर्शन के अनुसार, सत् अपने-आप में एक पूर्णता है, अनन्तता है। इन्द्रियानुभूति, बुद्धि, भाषा और वाणी अपनी-अपनी सीमा के कारण अनन्त गुण धर्मात्मक सत् के एकांश का ही ग्रहण कर पाती हैं, यही एकांश का बोध नय कहलाता है। दूसरे शब्दों में, सत् के अनन्त पक्षों को जिन-जिन दृष्टिकोणों से देखा जाता है, वे सभी नय कहलाते हैं। नयों का स्वरूप जैन-दार्शनिकों का कहना है कि सत् की अभिव्यक्ति के लिए भाषा .. के जितने प्रारूप (कथन के ढंग) हो सकते हैं, उतने ही नय, वाद अथवा दृष्टिकोण हो सकते हैं। वैसे तो जैन-दर्शन में नयों की संख्या अनन्त मानी गई है, लेकिन मोटे तौर पर नयों के दो भेद किये जाते हैं, जिन्हें - 1. निश्चयनय और 2. व्यवहारनय कहते हैं। निश्चयनय और व्यवहारनय में सभी नयों का अन्तरभाव हो जाता है। भगवतीसूत्र में इन दोनों नयों का प्रतिपादन बढ़े ही रोचक रूप में किया गया है- गौतमस्वामी भगवान् महावीर से पूछते हैं - “भगवन् ! प्रवाही गुड़ में कितने रस, वर्ण, गन्ध और स्पर्श होते हैं ?" महावीर कहते हैं- “गौतम ! में इस प्रश्न का उत्तर दो नयों से देता हूँ। व्यवहारनय से तो वह मधुर कहा जाता है, लेकिन निश्चयनय से उसमें पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श होते हैं।" वस्तुतः, निश्चय और व्यवहार-दृष्टियों का विश्लेषण यह बताता है कि वस्तु-तत्त्व न केवल उतना ही है, जितना इन्द्रियों के माध्यम से वह हमें प्रतीत होता है, अथवा बुद्धि उसके स्वरूप का निश्चय कर पाती है। .