________________ जैन धर्म एवं दर्शन-400 जैन ज्ञानमीमांसा-108 सत् स्वरूप को समझने के लिए इन्द्रियानुभूतिजन्य ज्ञान और बुद्धिजन्य ज्ञान उसके व्यावहारिक-पक्ष को ही पकड़ पाते हैं, क्योंकि बुद्धि भी भाषा पर आधारित है और भाषा का शब्द-भण्डार अति सीमित है। इसी प्रकार, अपरोक्षानुभूति भी या आत्मिक-अनुभूति भाषा और बुद्धि-निरपेक्ष होती है, जिसे अन्तर्दष्टि या प्रज्ञा कहा जाता है। निश्चयनय अपरोक्षानुभूति पर और व्यवहारनय इन्द्रियानुभूति और बौद्धिक-ज्ञान पर निर्भर करती है। इस प्रकार, व्यवहारनय भी इन्द्रियानुभूति और बौद्धिक विमर्श - दोनों की अपेक्षा रखता है। इस प्रकार, जैनदर्शन में ज्ञान और उसकी अभिव्यक्ति के इन्द्रियानुभूतिजन्य-ज्ञान, बौद्धिक-ज्ञान और आत्मिक-ज्ञान - ऐसे तीन विभाग भी किये गये हैं, ठीक इसी प्रकार, बौद्धदर्शन के विज्ञानवाद में भी परिकल्पित, परतंत्र और परिनिष्पन्न - ऐसे ज्ञान के तीन भेद किये गये हैं। बौद्धदर्शन का शून्यवाद भी इसे मिथ्या-संवृत्ति, तथ्य-संवृत्ति और . परमार्थ - ऐसे तीन रूपों में व्यक्त करता है। आचार्य शंकर ने भी इन्हें ही प्रतिभाषित-सत्य, व्यावहारिक-सत्य और पारमार्थिक-सत्य - ऐसे तीन विभागों में बाटा है। इन्द्रियानुभूति और बौद्धिक-ज्ञान व्यवहार-पक्ष को प्रधानता देते हैं, अतः इनको मिला देने पर दो विधाएँ ही शेष रहती हैंव्यवहार (व्यवहारनय) और परमार्थ (निश्चयनय)। पाश्चात्य–परम्परा में ज्ञान की ही विधाएँ - निश्चयनय और व्यवहारनय . . न केवल भारतीय-दर्शनों में, वरन् पाश्चात्य-दर्शनों में भी प्रमुख रूप से व्यवहार और परमार्थ के दृष्टिकोण स्वीकृत रहे हैं। डॉ. चन्द्रधर शर्मा के अनुसार भी पश्चिमी दर्शनों में भी व्यवहार और परमार्थ-दृष्टिकोणों का यह अन्तर सदैव ही माना जाता रहा है। विश्व के सभी महान् दार्शनिकों ने इसे किसी-न-किसी रूप में स्वीकार किया है। हेराक्लिटस के Kato और Ano पारमेनीडीज के मत (Opinion) और सत्य (Truth), सुकरात के रूप और आकार (Word and Form), प्लेटो के दर्शन में संवेदन (Sense) और प्रत्यय (Idea), अरस्तू के पदार्थ (Matter) और चालक (Mover), स्पिनोजा के द्रव्य (Substance) और पर्याय (Modes), कांट के