________________ जैन धर्म एवं दर्शन-398 जैन ज्ञानमीमांसा-106 का सम्बन्ध भाषा-दर्शन एवं अर्थ-विज्ञान (Science of meaning) से है। - नयों की अवधारणा को लेकर जैनाचार्यों ने यह प्रश्न उठाया है कि यदि वक्ता का अभिप्राय अथवा वक्ता की कथन-शैली या अभिव्यक्तिशैली ही नय है, तो फिर नयों के कितने प्रकार होंगे? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य सिद्धसेन द्वारा कहा गया है कि जितने वचन–पथ (कथन करने की शैलियाँ) हो सकते हैं, उतने ही नयवाद हो सकते हैं। वस्तुतः, नयवाद भाषा के अर्थ-विश्लेषण का सिद्धान्त है। भाषायी-अभिव्यक्ति के जितने प्रारूप हो सकते हैं, उतने ही नय हो सकते हैं, फिर भी मोटे रूप से जैन-दर्शन में दो, पाँच और सप्त नयों की अवधारणा मिलती है। यद्यपि इन सात नयों के अतिरिक्त निश्चय-नय और व्यवहार-नय तथा द्रव्यार्थिक-नय और पर्यायार्थिक-नय का भी उल्लेख जैन-ग्रन्थों में है, किन्तु ये नय मूलतः तत्त्वमीमांसा या अध्यात्मशास्त्र से सम्बन्धित हैं, जबकि नैगम आदि सप्त नय मूलतः भाषा-दर्शन से सम्बन्धित हैं। 'नय और निक्षेप - दोनों ही सिद्धान्त यद्यपि शब्द एवं कथन के वाच्यार्थ (Meaning) का निर्णय करने से सम्बन्धित हैं, फिर भी दोनों में अन्तर है। निक्षेप मूलतः शब्द के अर्थ का निश्चय करता है, जबकि नय वाक्य या कथन के अर्थ का निश्चय करता है। जैन-दर्शन में नयों का विवेचन तीन रूपों में मिलता है - (1) निश्चयनय और व्यवहारनय (2) द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय तथा (3) नैगमादि सप्तनय | भगवतीसूत्र आदि आगमों में नयों के प्रथम एवं द्वितीय वर्गीकरण ही वर्णित हैं, जबकि समवायांग, अनुयोगद्वार, नन्दीसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्र में नयों का तृतीय वर्गीकरण नैगमादि के रूप में पाया जाता है, इसका भाष्य-मान्य पाठ नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र एवं शब्द - ऐसे पाँच नयों का उल्लेख करता है, जबकि सर्वार्थसिद्धि-मान्य पाठ नैगम आदि सात नयों का उल्लेख करता है। निश्चय और व्यवहार - नय मूलतः ज्ञानपरक दृष्टिकोण से सम्बन्धित हैं। वे वस्तु-स्वरूप के विवेचन की शैलियाँ हैं, जबकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक-नय वस्तु के शाश्वत पक्ष और परिवर्तनशील पक्ष का विचार करते हैं। सप्त नयों की चर्चा में जहाँ तक नैगमादि प्रथम चार नयों का प्रश्न है, वे मूलतः वस्तु के सामान्य और विशेष स्वरूप की