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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-392 जैन ज्ञानमीमांसा-100 विकास हुआ है। विभज्यवाद और आधुनिक-भाषा विश्लेषणवाद वस्तुतः, जैन और बौद्ध-परम्पराओं में स्वीकृत विभज्यवाद, जिसका परवर्ती विकास क्रमशः स्याद्वाद और शून्यवाद में हुआ, मूलतः भाषा-विश्लेषण की एक पद्धति है और इस रूप में वह समकालीन पाश्चात्यभाषा-विश्लेषणवाद का ही एक पूर्वरूप या अग्रज है। - विभज्यवाद को स्पष्ट करने के लिए यहाँ हम कुछ दार्शनिक और कुछ व्यावहारिक-प्रश्नों को लेंगे और देखेंगे कि विभज्यवाद उसका विश्लेषण किस प्रकार करता है। मान लीजिए- किसी ने प्रश्न किया कि शरीर और चेतना (जीव) भिन्न-भिन्न हैं या अभिन्न हैं ? विभज्यवादी इसका सीधा उत्तर न देकर पहले तो यह जानना चाहेगा कि भिन्नता अथवा अभिन्नता से प्रश्नकर्ता का क्या तात्पर्य है ? दूसरे यह कि यह भिन्नता और अभिन्नता भी किस सन्दर्भ में पूछी जा रही है। पुनः, भिन्नता से उसका तात्पर्य तथ्यात्मक-भिन्नता से है अथवा वैचारिक या प्रत्ययात्मक-भिन्नता से है ? और यह भिन्नता भी आनुभविक-जगत् के सन्दर्भ में या तात्त्विक-सन्दर्भ में पूछी जा रही है, क्योंकि 'भिन्नता' शब्द के प्रत्येक तात्पर्य के आधार पर और प्रत्येक सन्दर्भ में इस प्रश्न के उत्तर अलग-अलग हो सकते हैं, जैसे - शरीर और चेतना (आत्मा) को विचार के क्षेत्र में पृथक्-पृथक् किया जा सकता है, किन्तु तथ्यात्मक क्षेत्र में हम उन्हें एक-दूसरे से पृथक् नहीं कर सकते। वे चिन्तन के क्षेत्र में भिन्न माने जा सकते हैं, लेकिन जागतिकं- अनुभव के क्षेत्र में तो अभिन्न हैं, क्योंकि जगत् में शरीर से पृथक् चेतना कहीं उपलब्ध नहीं होती है। पुनः, मृत व्यक्ति के सन्दर्भ में शरीर को चेतना से पृथक् माना जा सकता है, किन्तु जीवित व्यक्ति के सन्दर्भ में उन्हें एक-दूसरे से पृथक नहीं माना जा सकता, अतः महावीर और परवर्ती जैन-आचार्यों ने कहा था कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं (आया, भन्ते ! काये, अन्ने काये ? गोयमा ! आया वि काये अन्ने वि काये। - भगवती, 13.7 ) / इस प्रकार, व्यावहारिक-जीवन के क्षेत्र में जब यह पूछा जाये कि सोना अच्छा है या जागना अच्छा है, तो इस प्रश्न का कोई भी निस्पेक्ष उत्तर तब तक
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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