________________ जैन धर्म एवं दर्शन-393 जैन ज्ञानमीमांसा -101 नहीं दिया जा सकता, जब तक कि यह स्पष्ट न हो कि सोने और जागने से प्रश्नकर्ता का क्या तात्पर्य है। पुनः, यह बात किस प्रसंग में और किस व्यक्ति के सम्बन्ध में पूछी जा रही है, उदाहरण के लिए, सोना कई उद्देश्यों से हो सकता है - शरीर की थकावट मिटाकर स्फूर्ति प्राप्त करने के लिए सोना अथवा आलस्यवश सोना, इसी प्रकार सोना कई स्थितियों में भी हो सकता है - रात्रि में सोना, दिन में सोना, कक्षा में सोना; पुनः, सोने वाले व्यक्ति कई प्रकार के हो सकते हैं - हिंसक, अत्याचारी और दुष्ट अथवा सज्जन, सदाचारी और सेवाभावी / यहाँ किसलिए, कब और किसका- ये सभी तथ्य सोने या जागने के तात्पर्य के साथ जुड़े हुए हैं, इनका विश्लेषण किये बिना हम निरपेक्ष रूप से यह नहीं कह सकते हैं कि सोना अच्छा है या बुरा है। शारीरिक-स्फूर्ति के लिए, रात्रि में सोना अच्छा हो सकता है, जबकि आलस्यवश दिन में सोना बुरा हो सकता है। विभज्यवाद अन्य कुछ नहीं, अपितु प्रश्नों या प्रत्ययों के तात्पर्य का विश्लेषण करके उन्हें सापेक्ष रूप से स्पष्ट करना है। अंगुत्तरनिकाय में भगवान् बुद्ध कहते हैं कि विद्वान् (शब्दों, कथनों और प्रत्यय के) सत्य अर्थ (Right-meaning) और अनर्थ (False-meaning) - दोनों का ज्ञाता होता है। जो अनर्थ का परित्याग करके अर्थ का ग्रहण करता है, वही अर्थ के सिद्धान्त (अर्थ-अभिसमय) का जानकार पण्डित (दार्शनिक) कहा जाता है। बुद्ध के उपर्युक्त कथन में समकालीन भाषा-दर्शन का उत्स निहित है। जैन-परम्परा भी शब्द पर नहीं, उनके अर्थ (Meaning) पर बल देती है। जैन धर्म के अनुसार, तीर्थंकर अर्थ का प्रवक्ता होता है। आज का भाषा-विश्लेषण भी प्रत्ययों या शब्दों के अर्थ का विश्लेषण करके उन्हें स्पष्ट करता है तथा आनुभविक- सन्दर्भ में उनकी व्याख्या करता है। दार्शनिक-आधारों में आंशिक-भिन्नता के होते हुए भी पद्धति की दृष्टि से विभज्यवाद और -भाषा-विश्लेषणवाद में आंशिक-समानता है और इसी आधार पर हम यह कह सकते हैं कि आज से 2500 वर्ष पूर्व प्रस्तुत महावीर और बुद्ध का विभज्यवाद समकालीन भाषा-विश्लेषणवाद का पूर्वज है। आगे हम निक्षेपवाद एवं नयवाद की ही चर्चा करेंगे और अन्त में स्याद्वाद एवं सप्तभंगी का निर्देश करके विराम लेंगे।