________________ जैन धर्म एवं दर्शन-391 जैन ज्ञानमीमांसा-99 तथा यह बताया गया है कि किसी भी प्रश्न के उत्तर सापेक्ष-रूप में या आंशिक रूप से प्रश्न का विश्लेषण करके ही दिया जाना चाहिए। भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने प्रवाही-गुड़ के स्वाद एवं कौए के रंग के सम्बन्ध में इसी प्रकार निश्चय और व्यवहार-नय के आधार पर अर्थात् अलग-अलग दृष्टिकोणों के आधार पर विभिन्न उत्तर दिये थे। यही सापेक्षिक-उत्तर देने की पद्धति आगे चलकर जैनदर्शन में नयवाद और स्याद्वाद के रूप में अभिव्यक्त हई। यह सत्य है कि अनेक प्रश्नों का एकान्तिक रूप से या विश्लेषणपूर्वक भी कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता है, जैसे - मुर्गी पहले या अण्डा ? भगवान् बुद्ध ने ऐसे प्रश्नों को ठपनीय (स्थापनीय) कहा, अर्थात् कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं, जिनका उत्तर सम्भव ही नहीं होता है। जैन-दर्शन में सप्तभंगी में इसे ही अवक्तव्य-भंग कहा गया है। इस प्रकार, विभज्यवाद में एकान्तिक-उत्तरों को भी पूर्वतः अस्वीकार तो नहीं किया, किन्तु इसके लिए सापेक्षिक-दृष्टि से ही उत्तर देने कि बात कही गई। बौद्ध-दर्शन में जो प्रश्नों के उत्तर प्रति-प्रश्न के माध्यम से देने की बात कही गई है, उसे किसी विशिष्ट परिप्रेक्ष्य में उत्तर देना माना जा सकता है, जो कि स्याद्वाद-सिद्धान्त एवं नयवाद का आधार रहा है। प्रति-प्रश्न के माध्यम से उत्तर देने की यही पद्धति आगे चलकर जैन-दर्शन में नयवाद के रूप में विकसित हुई है। जहाँ तक बौद्ध-दर्शन में ठपनीय या स्थापनीय-रूप में प्रस्तुत प्रश्नों के सीधे उत्तर की समस्या है, उनका सीधा उत्तर असम्भव माना गया और ऐसे प्रश्नों को एक ओर रख देना ही उचित समझा गया है, वहाँ जैन-दर्शन में ऐसे प्रश्नों को सापेक्षिक-रूप में अवक्तव्य कहकर उत्तर देने की बात कही गई और "ठपनीय' को सप्तभंगी के अवक्तव्य-भंग में समाहित करने का प्रयत्न किया गया। जैसा कि हमनें पूर्व में कहा - बौद्धों का प्रति-प्रश्नवाद भी एक प्रकार से अनेकान्तवाद का ही एक रूप है, अतः बौद्ध-दर्शन में विभज्यवाद के स्पष्टीकरण के रूप में प्रश्नों के उत्तर देने की जो चार शैलियां मानी गई थीं, उन्हें जैनों ने स्याद्वाद के विभिन्न भंगों की दृष्टि से स्पष्ट किया। इस प्रकार, विभज्यवाद से नयवाद का और अनेकान्तवाद का