________________ जैन धर्म एवं दर्शन-390 . . जैन ज्ञानमीमांसा-98. में अंगुत्तरनिकाय (खण्ड 2, पृष्ठ 47) में तथा जैन-परम्परा में सूत्रकृतांग (1/14/22) में यह स्पष्ट रूप से निर्देश दिया गया है कि साधु को विभज्यवाद का अनुसरण करके ही प्रश्नों के उत्तर देने चाहिए (विभज्यवायं वियागरेज्जा)। बौद्ध-परम्परा में विभज्यवाद का यह विवरण उदान (1/1/6/4), थेर-गाथा (1/106), सुत्तनिपात (50/3,51/2 और 51/10) आदि में भी मिलते हैं। बौद्ध-दर्शन में कहा गया है- किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के चार तरीके हो सकते हैं - (1) एकांशवाद - आंशिक रूप से या सापेक्ष रूप से उत्तर देना, (2) विभज्यवाद - प्रश्न के विश्लेषणपूर्वक उत्तर देना, (3) प्रति-प्रश्नवाद - प्रतिप्रश्न करके उत्तर देना और (4) मौनवाद या स्थापनावाद - प्रश्न को उत्तर देने योग्य नहीं मानना। इन चार प्रकार के वादों में बुद्ध ने एकांशवाद को अस्वीकार करते हुए विभज्यवाद की स्थापना की थी और बताया कि प्रश्नों के उत्तर प्रश्न : को विभाजित करके ही देना चाहिए, एकान्तिक रूप से उत्तर नहीं देना चाहिए। यदि एकान्तिक उत्तर ही देना हो, तो उसके सन्दर्भ को स्पष्ट करते हुए उसका सापेक्ष या आंशिक-उत्तर ही देना चाहिए, अर्थात् उसका सापेक्ष रूप से ही या किसी एक दृष्टिकोण के आधार पर ही उत्तर देना चाहिए, अर्थात् इस दृष्टिकोण से यह ऐसा है - ऐसा सापेक्ष उत्तर ही देना चाहिए। सामान्यतया, प्रश्न का विश्लेषण करके ही उत्तर देना चाहिएयही विभज्यवाद है। विभज्यवाद का अर्थ है- विश्लेषणपूर्वक उत्तर देना, इसके लिए भी जहाँ आवश्यक हो, वहाँ पूछने वाले से प्रति-प्रश्न भी किये जा सकते हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण जैन-आगम भगवतीसूत्र में मिलता है, जहाँ श्राविका जयन्ती ने भगवान महावीर से पूछा था कि भगवान् सोना अच्छा है, या जागना ? इसका उत्तर देने हेतु प्रति-प्रश्न यह उठाया गया कि - किसका ? भगवान् महावीर ने इसका समाधान करते हुए कहा कि अधार्मिक-व्यक्तियों का सोना अच्छा है और धार्मिक . व्यक्तियों का जागना अच्छा है। इस प्रकार, प्रति–प्रश्नवाद भी विषय को स्पष्ट रूप से समझने में आवश्यक होता है, किन्तु यह भी मूल में विभज्यवाद का ही एक रूप है। इसमें भी प्रश्नों के उत्तर विश्लेषणपूर्वक ही दिये जाते हैं। विभज्यवाद में एकान्तिक उत्तर का निषेध किया गया है