________________ जैन धर्म एवं दर्शन-388 जैन ज्ञानमीमांसा-96 बाह्यार्थ के पुनः ज्ञान की या ज्ञानानन्तर–ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती है। उसकी प्रामाणिकता या सत्यता का निर्णय स्वयं उसी ज्ञान से हो जाता है, यही स्वतः-प्रामाण्यवाद है, जबकि नैयायिक आदि दूसरे कुछ दर्शन यह मानते हैं कि ज्ञान की प्रामाणिकता का निर्णय बाह्यार्थ के ज्ञानानन्तर-ज्ञान से होता है, इसे परतः-प्रामाण्यवाद कहा जाता है। इन दोनों अवधारणाओं का समन्वय करते हुए जैन-दार्शनिक कहते हैं- ज्ञान की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में स्वतः-प्रामाण्यवाद और परत:-प्रामाण्यवाद-दोनों दर्शन एकांगी है। ज्ञान की प्रामाणिकता के निर्णय के सम्बन्ध में हमें उस स्थिति में जाना होगा, जिस स्थिति में वह ज्ञान हुआ है। यदि ज्ञाता प्रबुद्ध है, अर्थात् उसे उस पदार्थ का स्वरूप-ज्ञान पूर्व अनुभूत है, तो उसे उस ज्ञान के साथ ही उसकी प्रामाणिकता का निर्णय भी स्वतः ही हो जाता है, यही स्वतःप्रामाण्यवाद है। दूसरे शब्दों में, अनुभवदशा में ज्ञान के प्रामाण्य का निर्णय स्वतः होता है। इसके विपरीत, पूर्व अनुभव के अभाव में ज्ञान के प्रामाण्य का निर्णय बाह्यार्थ के ज्ञानानन्तर-ज्ञान या अन्य ज्ञान से होता हैं, इसे ही. परतः प्रामाण्यवाद कहते हैं। संक्षेप में, जैन-दर्शन के अनुसार ज्ञान के प्रामाण्य का निर्णय अनुभवदशा में स्वतः ही होता है, जबकि पूर्व अनुभव के अभाव में ज्ञान के प्रामाण्य का निर्णय बाह्यार्थ के ज्ञानानन्तर अन्य ज्ञान से अर्थात् परतः-प्रामाण्य से होता है। प्रमाणनयतत्त्वालोक में कहा भी है प्रामाण्य निश्चयः स्वतः परतो वा मीमांसक ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः मानते हैं और ज्ञान का अप्रामाण्य परतः मानते हैं, जबकि नैयायिक ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य-दोनों को ही परतः मानते हैं / बौद्धों के अनुसार, ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः होता है और अप्रामाण्य परतः होता है। जैनों के अनुसार, ज्ञान का प्रामाण्य और अप्रामाण्य- स्वतः भी होता है और परतः भी होता है। अभ्यासदशा में स्वतः और अनभ्यासदशा में वह परतः होता है / विभज्यवाद, निक्षेप, नय, अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी जैन-ज्ञानमीमांसा और प्रमाणमीमांसा की परिणति जैनदर्शन में अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी में देखी जाती है, किन्तु इसके पूर्व