________________ जैन धर्म एवं दर्शन-387 जैन ज्ञानमीमांसा-95 वाच्यार्थ क्या है - यह इस बात पर निर्भर है कि उसे किस सन्दर्भ में और किस प्रकार प्रयुक्त किया गया है। विटगेन्स्टाइन ने अपने परवर्ती ग्रन्थ Philosophical Investigation में इस उपयोग-सिद्धान्त पर अधिक बल दिया है। जहाँ जैन-दार्शनिक अवधारणाओं का प्रश्न है, हमें विटगेन्स्टाइन के इन दोनों ही सिद्धान्तों के पूर्व बीज उनमें उपस्थित मिलते हैं। एक ओर, वे शब्द का वाच्यार्थ आकृति मानकर विटगेन्स्टाइन के चित्र-सिद्धान्त का समर्थन करते हैं, तो दूसरी ओर, शब्द के वाच्यार्थ के निर्धारण में अभिसमय-परम्परा या प्रयोग-सन्दर्भ को स्थान देकर विटगेन्स्टाइन के उपयोग-सिद्धान्त का भी समर्थन करते हैं। वस्तुतः, मेरी दृष्टि में ये दोनों अवधारणाएं एक-दूसरे की विरोधी नहीं हैं। शब्द को सुनकर हमारी चेतना में एक आकृति उभरती है, किन्तु किस शब्द के किस प्रकार प्रयोग से किस प्रकार की आकृति उभरेगी, इसका निर्धारण अभिसमय/परम्परा या प्रयोग- सन्दर्भ ही निश्चित करेगा। वस्तुतः, शब्द के वाच्यार्थ के सन्दर्भ में जैनों का आकृतिवाद का यह सिद्धान्त इस संबंध में प्रचलित विभिन्न मतवादों के समन्वय का एक प्रयास है। जैनों ने अपने अनेकान्तिक-दृष्टि के आधार पर शब्द के वाच्यार्थ को लेकर तत्कालीन परस्पर विरोधी सिद्धान्तों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया है, यही उनके शब्द-दर्शन की विशेषता है। ज्ञान का प्रामाण्य ज्ञान की प्रामाणिकता के निर्णय को लेकर भारतीय-परम्परा में दो प्रकार की विचार-धाराएँ प्रचलित रही हैं - 1. स्वतः प्रामाण्यवाद और 2. परतः प्रामाण्यवाद / बौद्ध स्वतः-प्रामाण्यवाद मानते हैं और नैयायिक परतः प्रामाण्यवाद मानते हैं। स्वतः-प्रामाण्यवाद यह मानता है कि ज्ञान की प्रामाणिकता या सत्यता का निर्णय स्वतः ही, अर्थात् उसी ज्ञान के द्वारा हो जाता है, क्योंकि प्रमाण-लक्षण में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो ज्ञान अन्य प्रमाणों या ज्ञानों से बाधित नहीं होता है, वह ज्ञान स्वतः ही प्रमाण रूप होता है। ज्ञान की प्रामाणिकता का निर्णय करने के लिए