________________ जैन धर्म एवं दर्शन-544 जैन- आचार मीमांसा-76 पर कि वह कितना अधिक लोकहितकारी है। सत्तावाद के जनक किर्केगार्ड के अनुसार नैतिकता आत्मकेन्द्रित है। कहा जाता है कि उन्होंने नैतिक-चिन्तन में कोपरनिकसीय क्रान्ति ला दी है। उनके पूर्ववर्ती अधिकांश आचारशास्त्री नैतिकता को परसापेक्ष मानते थे। उनकी दृष्टि में हमारा नैतिक आचरण दूसरे लोगों के लिए है, यदि हम ऐसे एकान्त स्थान में रहें, जहाँ दूसरा कोई व्यक्ति न हो, तो हमारे लिए नैतिकता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, लेकिन किर्केगार्ड इस विचार से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार, नैतिकता का सम्बन्ध व्यक्ति को स्वयं की आत्मा से है, न कि अन्य लोगों या समाज से। ___ जहाँ तक जैन-आचारदर्शन की बात है, निश्चयनय की दृष्टि से वह व्यक्तिवाद का ही समर्थक है। उसकी मान्यता है कि आत्महित ही नैतिक-जीवन का प्रमुख तत्त्व है। आत्महित करते हुए लोकहित सम्भव हो, तो किया जा सकता है, लेकिन यदि.लोकहित और आत्महित में विरोध हो, तो आत्महित करना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार, व्यक्तिवाद के समर्थन में जैन-आचारदर्शन और सत्तावादी-नीतिशास्त्र साथ-साथ चलते हैं। दोनों की दृष्टि में आत्मोत्थान या वैयक्तिक साध्य 'स्व' ही है, जिसकी उपलब्धि ही नैतिक-जीवन का सार है। अन्तर्मुखी चिन्तन और जैनदर्शन सत्तावादी-चिन्तक, विशेषरूप से किर्केगार्ड, नैतिकता को अनिवार्यतया आत्म-केन्द्रित मानते हैं। उनकी दृष्टि में सच्चे नैतिक-जीवन का प्रारम्भ आत्मगत चिन्तन या अन्तर्मुखी प्रवृत्ति में होता है। अन्तर्मुखता या आत्माभिमुख होना नैतिकता का प्रवेशद्वार है। जब तक विषयगत चिन्तन है, विषयाभिमुखता है, तब तक विषयगत चिन्तन है, विषयाभिमुखता है, तब तक नैतिक-जीवन में प्रवेश सम्भव नहीं। चिन्तन विषयाभिमुख होने पर उसका स्वयं के जीवन पर कोई प्रभाव नहीं होता, उसमें विचारों की निष्क्रिय भाग-दौड़ होती है। सैद्धान्तिक कहना-सुनना मात्र होता है। आत्मगत-चिन्तन में हम सत्य में ही स्थित होते हैं। उसके अपने शब्दों में किसी बात को सोचना एक बात है और उस सोची हुई बात में रहना दूसरी बात है। किर्केगार्ड इस सम्बन्ध में मृत्यु का उदाहरण देते हैं। उनका