________________ जैन धर्म एवं दर्शन-545 जैन- आचार मीमांसा-77 कहना है कि जब तक हम मृत्यु का विषयगत चिन्तन करते हैं, तब तक उसका हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। समाचारपत्रों में लोगों की मृत्यु के समाचार पढ़ते हैं, लोगों को मरते हुए देखते हैं; लेकिन दूसरों की मृत्यु हमें अधिक नहीं खलती है। यदि इसी मृतयु के विचार से एकदम गम्भीर हो जाते हैं। हमारे आचरण में अन्तर आ जाता है, जीवन में क्रान्ति हो जाती हैं इस प्रकार, आत्मगत-चिन्तन को नैतिक-जीवन का अनिवार्य तत्व और नैतिक-पथ पर अग्रसर होने का प्रथम चरण मानते हैं। __ जैन-आचारदर्शन इस विषय में सत्तावाद का सहगामी हैं। उसके अनुसार भी सच्ची नैतिकता का उद्भव आत्माभिमुख होने पर होता है। जैन–चिन्तन का स्पष्ट निर्देश है कि जितना आत्ममरण है, उतनी नैतिकता है और जितना पररमण है, उतनी अनैतिकता है। पररमण, पुद्गलपरिणति या विषयाभिमुखता अनैतिकता है और आत्मरमण या स्व में अवस्थिति नैतिकता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि आत्मा जब स्व-स्वभाव में स्थित होता है, तब वह स्व-समय में (नैतिक) होता है और जब ‘पर' पौद्गलिक-कर्मप्रदेशों में स्थित होता हुआ परस्वभावरूप राग-द्वेष-मोह का परिणमन करता है, तब वह पर-समय (अनैतिक) है। इसी जैन-दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए मुनि नथमलज़ी लिखते हैं कि नैतिकता जब मुझसे भिन्न वस्तु है, तो वह मुझसे परोक्ष होगी और परोक्ष के प्रति मेरा उतना लगाव नहीं होगा, जितने की उससे अपेक्षा होती है। वह (नैतिकता) मुझमें अभिन्न होकर ही मेरे स्व में धुल सकती है। सात्म्य हुए बिना कोई औषध भी परिणामजनक नहीं होती, तब नैतिकता की परिणति कैसे होगी? नैतिकता उपदेश्य नहीं है, वह स्वयंप्रसूत है। स्व-परोक्षता का नाम ही अन-आध्यात्मिकता है। इसकी परिधि में व्यक्ति पूर्ण नैतिक नहीं बन पाता, इसीलिए महावीर ने कहा था कि जो आत्मरमण है, वह अहिंसा है, जितना बाह्य-रमण है, वह हिंसा है। इसी सत्य की इन शब्दों में पुनरावृत्ति की जा सकती है कि जितनी आत्म-प्रत्यक्षता है, वह नैतिकता है और जितनी आत्म-परोक्षता है, वह अनैतिकता है। जैन-दर्शन का सम्यकदृष्टित्व सत्तावादी-दर्शन के आत्मगत-चिन्तन, आत्माभिमुखता, आत्म-अवस्थिति का ही पर्यायवाची है। जिस प्रकार