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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-543 जैन - आचार मीमांसा-75 सत्तावादी-नीतिशास्त्र और जैन-दर्शन __ 'सत्तावाद' समकालीन दार्शनिक-चिन्तन का एक प्रमुख दार्शनिक-सम्प्रदाय है। किर्केगार्ड, हेडेगर, सार्च और जेस्पर्स इस वाद के प्रमुख विचारक हैं। यद्यपि सत्तावादी-विचारकों में किसी सीमा तक मतभेद हैं, तथापि कुछ सामान्य प्रश्नों पर वे सभी एकमत हैं। सत्तावाद की प्रमुख विशेषता यह है कि वह बुद्धिवाद एवं विषयगत चिन्तन का विरोधी है तथा आत्मनिष्ठता ओर अन्तर्ज्ञान पर अधिक बल देता है। आचार दर्शन-विषयक अनेक प्रश्नों में सत्तावाद जैन-दर्शन के अधिक निकट है, अतः उसका संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है। आचारदर्शन को प्रमुखता - जैन-दर्शन के समान सत्तावाद के प्रमुख विचारक किर्केगार्ड भी तत्वमीमांसा में उतनी रुचि नहीं रखते, जितनी आचारदर्शन में। उनकी दृष्टि में केवल सत्, शिव और सुन्दर से ऊँचा नहीं है। नैतिक आत्मसत्ता ही सत् है, क्योंकि वह गत्यात्मक और उदीयमान है तथा व्यक्ति को महनीयता प्रदान करती है। नैतिक-आत्मसत्ता का ज्ञान कोरा ज्ञान नहीं है, वरन् उसमें हमारे जीवन को अधिक ऊँचा और महान् बनाने की प्रेरणा भी है। जैन-दर्शन भी निरे तत्वज्ञान का विरोधी है। जो तत्वज्ञान आत्मविकास की दिशा में नहीं ले जाता, वह निरर्थक ही है। उत्तराध्यनसूत्र में ऐसे निरर्थक ज्ञान का उपहास किया गया है। जो ज्ञान नैतिक-जीवन से सम्बन्धित नहीं है और नैतिक-जीवन को प्रेरणा नहीं देता, वह ज्ञान सत्तावाद और जैन-आचारदर्शन-दोनों के लिए ही अनावश्यक है। बुद्ध ने भी निरी तत्वमीमांसा की उपेक्षा ही की थी। वैयक्तिक नीतिशास्त्र आचारदर्शन की दृष्टि से सभी सत्तावादी-विचारक व्यक्तिवादी हैं। उनकी दृष्टि में आचारदर्शन आत्मसापेक्ष है, परसापेक्ष या समाजसापेक्ष नहीं। नैतिक-आचरण दूसरे लोगों के लिए नहीं, वरन् स्वयं व्यक्ति के लिए है। नैतिकता का अर्थ लोककल्याण नहीं, वरन् आत्मोत्थान है। कर्म की नैतिकता का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाना चाहिए कि उसमें कितनी तीव्र आत्मवेदना या स्व की सत्ता का बोध है, न कि इस आधार
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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