________________ जैन धर्म एवं दर्शन-541 जैन- आचार मीमांसा-73 योग कहा गया है। इस प्रकार, भारतीय आचारदर्शनों में भी आचरण में विवेक का प्रत्यय स्वीकृत रहा है। गर्नेट ने आचरण में विवेक के लिए समग्र परिस्थितियों एवं सभी पक्षों का विचार आवश्यक माना है, जिसे हम जैन-दर्शन के अनेकान्तवाद के सिद्धान्त के द्वारा स्पष्ट कर लेना चाहिए एवं एक सर्वांगीण-दृष्टिकोण रखना चाहिए। गर्नेट का कर्म के सभी पक्षों के विचार का प्रत्यय अनेकान्तवादी सर्वांगीण-दृष्टिकोण से अधिक दूर नहीं है। आत्मसंयम का सिद्धान्त और जैन-दर्शन __मानवतावादी नैतिक-दर्शन के तीसरे वर्ग का प्रतिनिधित्व इरविंग बबिट करते हैं। बबिट के अनुसार मानवता एवं नैतिक-जीवन का सार न तो आत्मचेतनामय जीवन जीने में है और न विवेकपूर्ण जीवन में, वरन् वह संयमपूर्ण जीवन या अनुशासन में है। बबिट आधुनिक युग के संकट का कारण यह बताते हैं कि एक ओर हमने परम्परागत (कठोर वैराग्यवादी) धारणाओं को तोड़ दिया और उनके स्थान पर छद्मरूप में आदिमभोगवाद की ऐसी गलत दिशा का चयन किया है, जिसमें मानवीय-हितों को चोट पहुंची है। उनका कथन है कि मनुष्य में निहित वासनारूपी पाप को अस्वीकृत करने का अर्थ उस बुराई को ही दृष्टि से ओझल कर देना है, जिसके कारण मानवीय सभ्यता का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। मनुष्य की वासनाएँ हैं, पाप हैं, अनैतिकता है, इस बात को भूलकर हम मानवीय सभ्यता का विनाश करेंगे और उसके प्रति जाग्रत रहकर मानवीय सभ्यता का विकास कर सकेंगे। बबिट बहुत ही ओजपूर्ण शब्दों में कहते हैं कि हममें जैविक-प्रवेग तो बहुत है, आवश्यकता है जैविक-नियन्त्रण की। हमें अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना चाहिए। केवल सहानुभूति के नाम पर सामाजिक-एकता नहीं आ सकती। मनुष्यों को सहानुभूति के सामान्य तत्व के आधार पर नहीं, वरन् अनुशासन सामान्य तत्व के आधार पर ही एक-दूसरे के निकट लाया जा सकता है। सहानुभूति के विस्तार का नैतिक–दर्शन केवल भावनात्मक-मानवतावाद की स्थापना करता है, जबकि आवश्यकता ऐसे ठोस मानवतावाद की है, जो अनुशासन पर बनता है।