________________ जैन धर्म एवं दर्शन-540 जैन- आचार मीमांसा-72 आवश्यक है। विवेकवाद और जैन-दर्शन 'मानवतावाद के समकालीन विचारकों में दूसरा वर्ग विवेक को प्राथमिक मानवीय-गुण मानता है। सी.बी. गर्नेट और इसराइल लेविन के अनुसार नैतिकता विवेकपूर्ण जीवन जीने में है। गर्नेट के अनुसार विवेक तार्किक-संगति नहीं, वरन् जीवन में कौशल या चतुराई है। बौद्धिकता या तर्क उसका एक अंग हो सकता है, समग्रता नहीं। गर्नेट अपनी पुस्तक 'विज़डम ऑफ कण्डक्ट' में प्रज्ञा को ही सर्वोच्च सदगुण मानते हैं और प्रज्ञा या विवेक से निर्देशित जीवन जीने में नैतिकता के सारतत्व की अभिव्यक्ति मानते हैं। उनके अनुसार, नैतिकता की सम्यक् एवं सार्थक व्याख्या शुभ, उचित, कर्तव्य आदि नैतिक प्रत्ययों की व्याख्या में नहीं, वरन् आचरण में विवेक के सामान्य-प्रत्यय में है। आचरण में विवेक एक ऐसा तत्व है, जो नैतिक-परिस्थिति के अस्तित्ववान-पक्ष, अर्थात् चरित्र प्रेरणाएँ, आदत, रागात्मकता, विभेदीकरण, मूल्यनिर्धारण और साध्य को दृष्टि में रखता है। इन सभी पक्षों को पूर्णतया दृष्टि में रखे बिना जीवन में विवेकपूर्ण आचरण की आशा नहीं की जा सकती। आचरण में विवेक एक ऐसी लोचपूर्ण दृष्टि है, जो समग्र परिस्थितियों के सभी पक्षों की सम्यक विचारणा के साथ खोज करती हुई सुयोग्य चुनाव करती है। लेविन के आचरण में विवेक का तात्पर्य एक समयोजनात्मक क्षमता से माना है। उसके अनुसार, नैतिक होने का अर्थ मानव की मूलभूत क्षमताओं की अभिव्यक्ति हैं गर्नेट और लेविन के आचरण में विवेक का प्रत्यय जैन-विचारणा तथा अन्य सभी भारतीय-विचारणाओं में भी मान्य रहा है। जैन-विचारकों ने सम्यज्ञान के रूप में जो साधनामार्ग बताया है, वह केवल तार्किक-ज्ञान नहीं है, वरन् एक विवेकपूर्ण दृष्टि है। जैन-परम्परा में विवेकपूर्ण आचरण के लिए यतना' शब्द का प्रयोग विभिन्न क्रियाओं को विवेक या सावधानीपूर्वक सम्पादित करता है, वह अनैतिक आचरण नहीं करता है। बौद्ध परम्परा में भी यही दृष्टिकोण स्वीकृत है। बुद्ध ने भी अंगुत्तरनिकाय में महावीर के समान ही इस तथ्य का प्रतिपादन किया है। गीता में कर्मकौशल को ही