________________ जैन धर्म एवं दर्शन-539 जैन - आचार मीमांसा-71 जाग्रत, चेतना नैतिकता है और प्रसुप्त चेतना अनैतिकता है। शुभ एवं उचित कार्य वह नहीं है, जिसमें आत्मविस्मृति होती है, वरन् वह है, जिसमें आत्मचेतनता होती है। ___ मानवतावादी-आचारदर्शन का यह आत्मचेतनतावादी-दृष्टिकोण जैन-आचारदर्शन के अति निकट है। वारनर फिटे के नैतिक-दर्शन की यह मान्यता अति स्पष्ट रूप में जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों में उपलब्ध है। ये आचारदर्शन आत्मचेतनता को अप्रमत्तता या आत्मजाग्रति कहते हैं। जैन-दर्शन के अनुसार प्रमाद आत्मविस्मृति की अवस्था है और उसे अनैतिकता का प्रमुख आधार कहा गया है। जो भी क्रियाएँ प्रमाद का कारण हैं, या प्रमादपूर्वक की जाती हैं, वे सभी अनैतिक हैं। आचारांग में कहा गया है कि जो प्रसुप्त चेतनावाला है, वह अमुनि (अनैतिक) है और जो जाग्रत चेतनावाला है, वह मुनि (नैतिक) है। सूत्रकृतांग में प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहकर यही कहा गया है कि जो क्रियाएँ आत्मविस्मृति को लाती हैं, वे बन्धनकारक हैं, इसलिए अनैतिक भी है। इसके विपरीत, जो क्रियाएँ अप्रमत्त-चेतना की अवस्था में सम्पन्न होती हैं, वे बन्धनकारक नहीं होती और वे पूर्णतया विशुद्ध और नैतिक हैं। इस प्रकार, वारनर फिटे का आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण जैन-विचारणा के अति निकट हैं बौद्ध-दर्शन में भी आत्मचेतनता को नैतिकता का प्रमुख आधार माना गया है। बुद्ध स्पष्ट कहते हैं कि अप्रमाद अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का / बौद्ध दर्शन में अष्टांग-साधनामार्ग में सम्यकस्मृति भी इस बात को स्पष्ट करती है कि आत्मस्मृति या जाग्रत चेतना नैतिकता का आधार है, जबकि आत्मविस्मृति अनैतिकता का आधार है। नन्द को उपदेश देते हुए बुद्ध कहते हैं कि जिसके पास स्मृति नहीं है, उसे आर्य सत्य कहाँ से प्राप्त होगा, इसलिए चलते हुए चल रहा हूँ, खड़े होते हुए खड़ा हो रहा हूँ एवं इसी प्रकार दूसरे कार्य करते समय अपनी स्मृति बनाए रखो। इस प्रकार, बुद्ध भी आत्मचेतनता को नैतिक-जीवन का केन्द्र स्वीकार करते हैं। - गीता में भी सम्मोह से स्मृतिविनाश और स्मृतिविनाश से बुद्धिनाशऐसा कहकर यही बताया गया है कि आत्मचेतना नैतिक-जीवन के लिए