________________ जैन धर्म एवं दर्शन-538 जैन- आचार मीमांसा-70 कर्मपरिणाम को और निश्चयदृष्टि से कर्मप्रेरक को औचित्य और अनौचित्य के निर्णय का आधार मानता है। इस प्रकार, जैन-दर्शन की मानवतावाद से इस सम्बन्ध में आंशिक समानता है। मानवतावाद मनुष्य को ही समग्र मूल्यो का मानदण्ड स्वीकार करता है। इस प्रकार उसमें मानवीय जीवन का सर्वाधिक महत्व है। यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न को देखें, तो हमें यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करना होगा कि भारतीय-परम्परा भी मानवीय जीवन के महत्त्व. को स्वीकार करती है। जैन-आगम उत्तराध्ययन में मानव-जीवन को दुर्लभ बताया गया है। आचार्य अमितगति ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि जीवन में मनुष्य का जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है। धम्मपद में भगवान् बुद्ध ने भी मनुष्य-जन्म को दुर्लभ बताया है। महाभारत में भी कहा गया है कि रहस्य की बात तो यह है कि मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास भी इस तथ्य को प्रकट करते हैं- 'बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर दुरलभ सब ग्रन्थन्हि गावा। इस प्रकार, भारतीय–चिन्तन में मनुष्य-जीवन के सर्वोच्च मूल्य को स्वीकार किया गया है। ' ___ समकालीन मानवतावादी-विचार में प्राथमिक मानवीय-गुण के प्रश्न को लेकर प्रमुख रूप से तीन विचारधाराएँ प्रचलित हैं। जैन-आचारदर्शन के साथ इनका तुलनात्मक अध्ययन करने की दृष्टि से इन तीनों विचारधाराओं पर अलग-अलग विचार किया जा रहा है। आत्मचेतनतावादी-दृष्टिकोण और जैन-दर्शन ___ आत्मचेतनता या आत्मजाग्रति को ही नैतिकता का आधार और प्राथमिक मानवीय-गुण मानने वाले मानवतावादी-विचारकों में वारनर फिटे प्रमुख हैं। ये नैतिकता को आत्मचेतना का सहगामी मानते हैं। उनकी दृष्टि में नैतिकता का परिभाषक उस समग्र सामाजिक–प्रक्रिया में नहीं है, जिसमें मनुष्य जीता है, वरन् आत्मचेतनामय जीवन जीने में है, जो व्यक्ति के जीवन में रही हुई है। वस्तुतः, नैतिकता आत्मचेतनामय जीवन जीने में है। उनका कथन है कि जीवन के या अन्य किन्हीं भी मूल्यों को अवधारण कर सकता है। चेतना के नियन्त्रण में जो जीवन है, वही सच्चा जीवन है। नैतिक होने का अर्थ यह जानना है कि हम क्या कर रहे हैं।