________________ जैन धर्म एवं दर्शन-535 जैन - आचार मीमांसा-67 इस परम्परा में भी 'परम मूल्य' की धारणा के आधार पर अनेक वर्ग बनते हैं, उनमें कुछ दृष्टिकोण निम्नानुसार हैं 1. मानवता केन्द्रित मूल्यवाद (मानवतावाद) / 2. अस्तित्ववादियों का आत्म-केन्द्रित मूल्यवाद 4. अरबन का आध्यात्मिक-मूल्यवाद 8. मानवतावादी सिद्धान्त और जैन-आचारदर्शन मानवतावाद में नैतिकता का प्रत्यय सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि मानवतावाद को आचारशास्त्रीय-धर्म कहा जाता है। मानवतावादी-सिद्धान्त नैतिकता को मानव की सांस्कृतिक-चेतना के विकास में देखता है। सांस्कृतिक-विकास ही नैतिकता की कसौटी है। सांस्कृतिक-विकास एवं नैतिक-जीवन मानवीय-गुणों के विकास में निहित हैं। मानवतावादी चिन्तन में मनुष्य ही नैतिक मूल्यों का मानदण्ड ओर मानवीय-गुणों का विकास ही नैतिकता है। मानवतावादी-विचारकों की एक लम्बी परम्परा है। प्लेटो और अरस्तु से लेकर लेमाण्ट, जाकमारिता तथा समकालीन विचारकों में वारनर फिटे, सी.बी. गर्नेट और इस्राइल लेविन प्रभृति विचारक इस परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये सभी विचारक मानवीय-गुणों के विकास में नैतिकता के प्रत्यय को देखते हैं, फिर भी प्राथमिक मानवीय-गुण क्या हैं, इस विषय में उनमें मतभेद हैं। समकालीन मानवतावादी विचारकों में भी इस प्रश्न को लेकर प्रमुख रूप से तीन वर्ग हैं, जिन्हें आत्मचेतनावादी, विवेकवादी और आत्मसंयमवादी कह सकते हैं। इन तीनों मान्यताओं का जैन-दर्शन के साथ निकट सम्बन्ध देखा जा सकता है। इनके साथ जैन-दर्शन की तुलना करने के पूर्व मानवतावाद की कुछ सामान्य प्रवृत्तियों का जैन विचार-परम्परा सहानुभूति के प्रत्यय को ही नैतिकता का आधार बनाती है। मानवतावाद के अनुसार, मनुष्य का परम प्राप्तव्य इसी जगत में केन्द्रित है और इसलिए वह अपने नैतिक-दर्शन को किसी पारलौकिक सुख-कामना पर आधृत नहीं करता। उसके अनुसार, नैतिक होने के लिए किसी पारलौकिक-आदर्श या साध्य की आवश्यकता नहीं है, वरन् मनुष्य में निहित सहानुभूति का तत्व ही उसे नैतिकता के प्रति आस्थावान् बनाए रखने के लिए पर्याप्त है।