________________ जैन धर्म एवं दर्शन-536 जैन - आचार मीमांसा-68 वह नैतिकता को प्रलोभन और भय के आधार पर खड़ा न करके मानव में निहित सहानुभूति के तत्व पर खड़ा करता है। उसके अनुसार, नैतिक होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम किसी पारलौकिक-सत्ता या ईश्वर अथवा कर्म के नियम जैसे किसी सिद्धान्त पर आस्था रखें, वरन् मानवीय-प्रकृति में निहित सहानुभूति का तत्व ही नैतिक होने के लिए पर्याप्त है। - इस विषय में जैन-दर्शन का दृष्टिकोण क्या है? जैन-दर्शन भी प्राणी में निहित सहानुभूति के तत्त्व को स्वीकार करता है, तथापि वह कर्म-सिद्धान्त को भी मानकर चलता है। इस प्रकार, जहाँ मानवतावाद सहानुभूति के तत्त्व को ही नैतिकता का आधार बनाता है, वहाँ जैन-दर्शन सहानुभूति के तत्त्व के साथ-साथ कर्म-सिद्धान्त को भी नैतिकता का आधार बनाता है। मानवतावाद सांसारिक हित-साधन पर जोर देता है और पारलौकिक-सुखकामना को व्यर्थ मानता है। वह मनुष्य को स्थूल ऐन्द्रिक-सुखों तक ही सीमित नहीं रखता है, वरन् कला, साहित्य, मैत्री और सामाजिक-सम्पर्क के सूक्ष्म सुखों को भी स्थान देता है। लेमाण्ट परम्परावादी और मानवतावादी-आचारदर्शनों में. निषेधात्मक और विधेयात्मक-दृष्टि से भेद स्पष्ट करता है। उसके अनुसार, परम्परावादी नैतिक-दर्शन में वर्तमान के प्रति उदासीनता और परलोक में सुख प्राप्त करने की इच्छा होती है, यह निषेधात्मक है। इसके विपरीत, मानवतावाद वर्तमान जीवन के प्रति आस्था रखता है और उसे सुखी बनाना चाहता है, यह विधेयक है। जैन, बौद्ध और वैदिक-दर्शन पारलौकिकता के प्रत्यय को स्वीकार करते हैं और भावी जीवन के अस्तित्व में भी आस्था रखते हैं, लेकिन इस आधार पर उन्हें निषेधात्मक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे वर्तमान जीवन के प्रति उदासीनता नहीं रखते। जैन-दार्शनिक स्पष्टरूप से कहते हैं कि नैतिक-साधन का पारलौकिक-सुख की कामना से कोई सम्बन्ध नहीं है, बल्कि पारलौकिक सुख-कामना की दृष्टि से किया गया नैतिक-कर्म दूषित होता है। जैन दार्शनिक नैतिक-साधना को न ऐहिक-सुखों के लिए और न पारलौकिक-सुखों के लिए मानते हैं, वरन् उनके अनुसार तो