________________ जैन धर्म एवं दर्शन-534 जैन - आधार मीमांसा -66 . भारतीय-परम्परा में पूर्णतावाद का आरम्भ वेदों से होता है, जिनमें पूर्णता के प्राप्त करना मानव जीवन का आदर्श माना गया है। उपनिषदों में यही पूर्णतावाद आत्मसाक्षात्कार या आत्मलाभ के रूप में स्वीकृत रहा है। गीता में परमात्मा को पूर्णपुरुष के रूप में उपस्थित किया गया है और उसकी प्राप्ति को ही नैतिक-जीवन का साध्य माना गया है। मूल्य का प्रतिमान और जैन-दर्शन पाश्चात्य विचार–परम्परा में मूल्यवाद नैतिक-प्रतिमान का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त माना जाता है। मूल्यवाद के अनुसार मूल्य वह है, जो भावना या इच्छा की पूर्ति करता है। मूल्य की समुचित परिभाषा यह हो सकती है कि 'मूल्य वह है, जिसे पाने के लिए व्यक्ति और समाज चेष्टा करते हैं, जिसके लिए जीवित रहते हैं और जिसके लिए बड़ा से बड़ा उत्सर्ग करने के लिए तैयार रहते हैं। __ मूल्यवाद के अनुसार शुभ और उचित, परिणामों या शुभ संकल्पों पर निर्भर नहीं है। शुभ एवं उचित, जीवन के उन आदर्शों से निर्गमित होते हैं, जो हमारे जीवन का परमार्थ या श्रेय है। मूल्यवाद की परम्परा में मूल्य एक व्यापक शब्द है। यह यद्यपि श्रेय, साध्य का आदर्श या सूचक है, तथापि कोई अकेला साध्य मूल्य नहीं है। मूल्य सदैव व्यवस्था में निर्धारित होता है। सुख, जीवन, वैराग्य आदि में प्रत्येक एक मूल्य है, किन्तु मूल्य उससे अधिक व्यापक है। 'मूल्य' एक तत्व नहीं है, एक व्यवस्था है और उसी व्यवस्था में किसी मूल्य का बोध होता है। __ मूल्यवाद मूल्य की अपेक्षा मूल्यों पर बल देता है, फिर भी ‘परम मूल्य' या सर्वोच्च मूल्य क्या है, यह विषय मूल्यवादी-विचारणा में विवादपूर्ण ही रहा है। सुकरात 'ज्ञान' को प्लेटो 'न्याय' को, अरस्तू ‘उच्चविचारशीलता' को, स्पीनोजा 'ईश्वर' को और हेगल 'व्यक्तित्वलाभ' को सर्वोच्च मूल्य मानते हैं। अरबन ने आध्यात्मिक-मूल्यों में क्रमशः कलात्मक, बौद्धिक और धार्मिक (चारित्रिक) मूल्यों के रूप में सौन्दर्य, सत्य और शिव (कल्याण) को परम मूल्य माना है, जिनमें भी प्रथम की अपेक्षा दूसरा और दूसरे की अपेक्षा तीसरा अधिक उच्च माना गया है। मूल्यवाद की इस परम्परा में भी 'परम मूल्य' की अपेक्षा तीसरा अधिक उच्च माना गया है। मूल्यवाद की