________________ जैन धर्म एवं दर्शन-532 जैन- आचार मीमांसा-64 मनुष्य होने के लिए सामाजिक होना आवश्यक है, यद्यपि सामाजिकता भी अन्तिम नहीं है, सामाजिकता से भी ऊपर उठना आवश्यक है। इस प्रकार, वह सामाजिकता और नैतिकता के क्षेत्र के अतिक्रमण पर बल देता है। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए, तो सभी मोक्षलक्षी-दर्शन पूर्णतावाद के समर्थक हैं। श्री संगमलाल पाण्डे लिखते हैं कि वास्तव में हिन्दू-धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म के नीतिशास्त्र बहुत कुछ एकसमान हैं। वे सभी मनुष्य को पूर्ण होने की शिक्षा देते हैं। तीनों धर्मों का पूर्णतावाद पर त्रिवेणीसंगम होने के कारण पूर्णतावाद भारतीय-नीतिशास्त्र का सर्वमान्य सिद्धान्त हो गया है। ___जिस प्रकार पूर्णतावाद नैतिक साध्य के रूप में भावनामय और बुद्धिमय-दोनों ही पक्षों को स्वीकार करता है और बुद्धि के द्वारा भावनाओं के अनुशासन पर बल देता है, उसी प्रकार जैन-दर्शन भी मोक्ष के नैतिक-साध्य में भावनात्मक और बौद्धिक-दोनों ही पक्षों को स्वीकार करता है तथा यह मानता है कि व्यावहारिक जीवन में कषाययुक्त आत्मा को ज्ञानात्मा से अनुशासित होना चाहिए। जैन-दर्शन के अनुसार ही कषाय आत्मा का त्याग और ज्ञान, दर्शन और चारित्र-गुण से युक्त शुद्ध आत्मा का लाभ नैतिक-जीवन का आवश्यक अंग है। जैन-दर्शन और पूर्णतावाद इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि नैतिकता आध्यात्मिक-तत्व (आत्मा) के अनन्त विकास की प्रक्रिया है। यद्यपि पूर्णतावद और विशेषकर ब्रैडले का दृष्टिकोण यह स्वीकार करता है कि अनन्त विकास की प्रक्रिया है। यद्यपि पूर्णतावाद और विशेषकर ब्रैडले का दृष्टिकोण यह स्वीकार करता है कि अनन्त विकास की प्रक्रिया भी अनन्त है और कभी समाप्त नहीं होती है, जबकि जैन-दर्शन मानता है कि व्यक्ति अनन्त विकास की इस प्रक्रिया में पूर्णता तक पहुँच सकता है। पूर्णतावाद आदर्श के यथार्थ बन जाने की सम्भावना में विश्वास नहीं करता, जबकि जैन-दर्शन यह मानता है कि नैतिक-पूर्णता का यह आदर्श यथार्थ बनाया जा सकता है। जिस प्रकार पूर्णतावाद नैतिकता के आन्तरिक-पक्ष, चरित्रविकास एवं वासनाओं के परिमार्जन को आवश्यक मानता है, उसी प्रकार जैन-दर्शन भी नैतिकता के आन्तरिक-पक्ष, चरित्रविकास एवं वासनाओं के परिमार्जन