________________ जैन धर्म एवं दर्शन-530 जैन- आचार मीमांसा-62 होते हैं, वे ही नैतिक होते हैं। विभावदशा में होने वाले कर्म अनैतिक हैं। कांट के स्वयंसाध्य के सूत्र का आशय यह है कि मनुष्य स्वयं साध्य है और उसको किसी दूसरे मनुष्य के लिए साधन नहीं बनना चाहिए। यदि व्यक्ति अपनी आत्मा को साध्य न बनाकर स्वयं को किसी अन्य का साधन बनाता है, तो उसका यह कर्म नैतिक नहीं माना जाएगा। जैन-दर्शन में ऐसा कोई निर्देश हमें उपलब्ध नहीं होता है। इसके विपरीत, अनेक स्थितियों में व्यक्ति को दूसरे के हित का साधन बनने को कहा गया है। यदि हम इस सिद्धान्त का यह आशय स्वीकार करें कि मानवता का (चाहे वह हमारे स्वयं के अन्दर हो, अथवा किसी अन्य व्यक्ति में) सम्मान करना चाहिए, तो इस रूप में वह जैन-दर्शन में भी स्वीकृत हो सकता है। एक अन्य अपेक्षा से भी इस सूत्र का यह भी आशय निकाला जा सकता है कि व्यक्ति का नैतिक-विकास और पतन स्वयं उसी पर निर्भर है। इस अर्थ में यह सिद्धान्त नैतिक-जीवन में पुरुषार्थ की धारणा पर बल देता है और यह जैन-दर्शन में भी स्वीकृत है। जैन-आचारदर्शन का स्पष्ट मन्तव्य है कि व्यक्ति का हित और अहित स्वयं उसी पर निर्भर है। ___ कांट के स्वतन्त्रता के सूत्र की व्याख्या यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार प्राप्त है, अतः जिसे हम अपना अधिकार मानते हैं, उसे ही दूसरों का भी अधिकार मानना चाहिए। यदि हम चोरी करते समय दूसरों की सम्पत्ति पर अपना अधिकार मानते हैं, तो दूसरों को भी यह अधिकार प्राप्त है कि वे आपकी सम्पत्ति पर अपना अधिकार मानकर उसका उपभोग करें। इस प्रकार, यह सूत्र समान अधिकार की बात कहता है, जो कि प्रथम सूत्र से अधिक भिन्न नहीं है। यह सूत्र भी सबको अपने समान समझने का आदेश है और इस रूप में वह आत्वत्-दृष्टि का ही प्रतिपादक है। . कांट का साध्यों के राज्य का सूत्र यह बताता है कि सभी मनुष्यों को समान मूल्यवाला समझो और इस अर्थ में यह सिद्धांत लोकप्रिय या लोकसंग्रह का प्रतिपादक है तथा पारस्परिक सहयोग तथा पूर्ण सामंजस्य के साथ कर्म करने का निर्देश देता है। इसमें भी आत्मवत्-दृष्टि का भाव सन्निहित है। इस सूत्र में प्रतिपादित सभी विचार जैन तथा अन्य भारतीय दर्शनों में उपलब्ध हैं।