________________ जैन धर्म एवं दर्शन-529 जैन- आचार मीमांसा-61 कांट के सार्वभौम विधान के सूत्र के अनुसार कोई भी कर्म तभी नैतिक हो सकता है, जबकि सार्वभौम नियम बनने की क्षमता रखता हो। सामान्य नियम ही नैतिक-नियम हो सकता है। यदि कोई नियम इस सिद्धान्त के प्रतिकूल है, तो वह अनैतिक है। उदाहरणार्थ, चोरी करने को लीजिए। यदि कोई व्यक्ति चोरी को अपने आचरण का व्यक्तिगत नियम बनाता है, तो उसे यह भी देखना होगा कि क्या वह चोरी को उसी समय सार्वभौम-नियम बना सकता है? स्पष्ट है कि वह यह कभी नहीं चाहेगा कि उसके द्वारा चुराए माल की अन्य कोई चोरी करे। इस प्रकार, चोरी सार्वभौम-नियम नहीं हो सकती, क्योंकि चोरी को सार्वभौम बनाने पर चोरी का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा। इसी प्रकार; हिंसा, असत्य, बेईमानी आदि अवगुण भी सार्वभौम नियम नहीं बनाए जा सकते, इसलिए वे सभी अनैतिक हैं। कांट के इस सूत्र का आशय यही है कि हम जैसा व्यवहार अपने प्रति चाहते हैं, वैसा ही आचरण दूसरों के प्रति करें, हम अपने बारे में जैसी इच्छा करें, वैसी ही इच्छा दूसरे के बारे में भी करें। जैन-दर्शन और अन्य भारतीय दर्शनों में भी इसे ही नैतिक-नियम का सर्वस्व माना गया है। जैन, बौद्ध एवं वैदिक-आचारदर्शनों में भी शुभाशुभत्व के प्रतिपादन के रूप में यही सिद्धान्त स्वीकृत हैं। जैन-आचारदर्शन में भी कर्म के शुभाशुभत्व का निर्णायक यही आत्मवत्दृष्टि का सिद्धान्त है। गीता और बौद्ध-आचारदर्शन में भी इस सिद्धान्त का समर्थन मिलता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कांट का सार्वभौम-विधान का सूत्र आत्मवत् दृष्टि के सिद्धान्त के रूप में भारतीय-परम्परा में ही स्वीकृत रहा है। कांट के प्रकृति विधान के सूत्र का आशय यह है कि जो कर्म प्रकृति की एकरूपता और सोद्देश्यता के अनुरूप हैं, वे ही करने चाहिए। इस सूत्र का एक आशय यह भी हो सकता है कि स्वभाव के अनुरूप ही कर्म करना चाहिए। कांट के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन गीता में स्वधर्म सिद्धान्त के रूप में हुआ है। गीता में कृष्ण कहते हैं कि ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृति के अनुरूप ही आचरण करते हैं। जैन-दर्शन के अनुसार यह कहना पड़ेगा कि आत्मा का जो निज स्वभाव है, या जो स्वभावदशा है, उसी से हमारे कर्म निःसृत होने चाहिए। जो कर्म स्वभावदशा से निःसृत