SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-526 जैन- आचार मीमांसा-58 एकदूसरे के निकट आते हैं। स्पेन्सर के अनुसार विकास की अवस्था में नैतिकता सापेक्ष होती है और वह विकास की पूर्णता पर ही नैतिकता की निरपेक्षता को स्वीकार करता है। उसके अनुसार भी हम जैसे-जैसे आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया में ऊपर उठते जाते हैं, वैसे-वैसे. नैतिक-बाध्यताओं और नैतिक-सापेक्षताओं से ऊपर उठते हुए नैतिक-निरपेक्षता की ओर आगे बढ़ते हैं। स्पेन्सर ने जीवन की लम्बाई और चौड़ाई को नैतिक प्रतिमान बनाने का प्रयास किया है। जैन दर्शन जीवन रक्षण की बात करते हुए भी स्पेन्सर की जीवन की लम्बाई और चौड़ाई के नैतिक-प्रतिमान को स्वीकार नहीं करता। स्पेन्सर के अनुसार जीवन की लम्बाई का अर्थ है- दीर्घाय होना और चौड़ाई का अर्थ है- जीवन की सक्रियता या कर्मठता। जैन-दर्शन स्पेन्सर की उपर्युक्त मान्यताओं को समुचित नहीं मानता, क्योंकि एक महापुरुष को अल्पायु होने के कारण अनैतिक नहीं कहा जा सकता और एक डाकू को शारीरिक-दृष्टि से कर्मठ होने पर नैतिक नहीं कहा जा सकता। जीवनवृद्धि का सच्च अर्थ तो सद्गुणों की वृद्धि है। जैन दार्शनिकों ने जीवनरक्षण की अपेक्षा सद्गुणों के रक्षण को अधिक महत्वपूर्ण माना है। वह तो सद्गुणों के रक्षण के लिए देह के उत्सर्ग या प्राणान्त को भी अनैतिक नहीं मानता। उसके अनुसार, जीवन अपने में साध य नहीं, वरन् नैतिक पूर्णता को प्राप्त करने का साधन है। इस प्रकार, जैन-दर्शन और स्पेन्सर का विकासवाद कुछ अर्थों में एक दूसरे से भिन्न भी सिद्ध होते हैं। स्पेन्सर का जीवन-वृद्धि का आदर्श वस्तुतः वैयक्तिक नीतिशास्त्र का प्रतिपादक है। स्पेन्सर के लिए वैयक्तिक-नैतिकता ही प्रमुख थी। यद्यपि उसने जातिरक्षण को भी स्वीकार किया है, तथापि सामाजिक-नीतिशास्त्र का प्रतिपादन विकासवाद के अन्य दो विचारकों के द्वारा ही हुआ है। उनमें स्टीफेन ने सामाजिक-स्वास्थ्य और अलेक्जेण्डर ने सामाजिक-समकक्षता के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। यद्यपि स्पष्ट रूप में जैन दार्शनिकों ने इन सिद्धान्तों के सन्दर्भ में कोई बात कही हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता, तथापि यदि हम सामाजिक-स्वास्थ्य का अर्थ सामाजिक-व्यवस्था करते
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy