________________ जैन धर्म एवं दर्शन-517 जैन- आचार मीमांसा-49 करता है, वह निर्विकल्प सुख है। वस्तुतः जैन दृष्टि में निर्विकल्प सुख ही वास्तविक सुख है। सुखवाद के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि जैन विचारकों की दृष्टि में 'सुख' शब्द का क्या अर्थ अभिप्रेत है। कठिनाई यह है कि जैनागमों की भाषा प्राकृत है। प्राकृत 'सुह' शब्द के संस्कृत भाषा में 'सुख' और 'शुभ-ऐसे दो रूप बनते हैं। दूसरे, जैनागमों में विभिन्न स्थलों पर 'सुह भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। वहाँ प्रसंग के अनुकूल अर्थ निश्चय करने में कोई कठिनाई नहीं होती / / ___ जैनाचार्यों ने 'सुख' दस प्रकार के माने हैं- (1) आरोग्यसुख, (2) दीर्घायुष्यसुख, (3) सम्पत्तिसुख, (4) कामसुख, (5) भोगसुख, (6) सन्तोषसुख, (7) अस्तित्वसुख, (8) शुभभोगसुख, (7) निष्क्रमणसुख और (10) अनाबाधसुख / - सुख के इस वर्गीकरण को जैन दृष्टि से निम्नस्तरीय और उच्चस्तरीय सुखों के सापेक्ष आधार पर प्रस्तुत किया जाए, जो उसका स्वरूप निम्न होगा- (1) सम्पत्तिसुख, (2) कामसुख, (3) भोगसुख, (4) शुभभोगसुख, (5) आरोग्यसुख, (6) दीर्घायुष्यसुख, (7) सन्तोषसुख, (8) निष्क्रमणसुख, (9) अस्तित्वसुख और (10) अनाबाधसुख / . सम्पत्ति या अर्थ गार्हस्थिक-जीवन के लिए आवश्यक है और सांसारिक-सुखों के लिए कारणभूत होने से उसे 'सुख' कहा गया है। भारतीय-विचारणा में चार पुरुषार्थों में अर्थ को एक पुरुषार्थ मानकर नैतिक दृष्टि से उसका महत्व अवश्य स्वीकार किया गया है, लेकिन सम्पत्ति अपने में साध्य नहीं है, वह तो मात्र साधन है, इसीलिए इसे नैतिकता का साध्य नहीं माना जा सकता। यद्यपि मम्मनसेठ के समान कुछ लोग होते हैं, जिनके लिए धन या अर्थ की साध्य बन जाता है, लेकिन जैन-विचारणा में अर्थ या सम्पत्ति को सुख मानकर उसके अपहार का निषेध अवश्य किया गया है, तथापि जैन दर्शन यह तो स्वीकार करता है कि सुख का चाहे निम्नस्तरीय ही रूप क्यों न हो, स्वाभाविक रूप से प्राणी के जीवन का साध्य होता है, लेकिन नैतिकता इस बात में नहीं है कि उस निम्नस्तरीय सुख के अनुसरण में उच्चस्तरीय सुख का त्याग कर दिया .जाए। साम्पत्तिक-सुख का त्याग कामसुख एवं भोगसुख के लिए करना