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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-518 जैन - आचार मीमांसा-50 चाहिए, क्योंकि अर्थ काम और भोग का साधन है। इसी प्रकार, काम और भोग का परित्याग शुभभोग के लिए करना चाहिए। यहाँ पर जैन दार्शनिक कामसुख और भोगसुख तथा शुभभोगसुख में अन्तर करते हैं। कामसुख और भोगसुख क्रमशः वासनात्मक और इन्द्रियसुखों के प्रतीक हैं और शुभभोग मानसिक-सुखों का प्रतीक है। जैन विचारकों के मत में इन्द्रियसुखों की अपेक्षा मानसिक-सुख श्रेष्ठ है, अतः मानसिक-सुख या बौद्धिक-सुख के अनुसरण के लिए इन्द्रियसुखों का परित्याग आवश्यक है। एक दूसरी दृष्टि से शुभ शब्द का अर्थ 'कल्याणकारी' करने पर कामसुख और भोगसुख को वैयक्तिक और शुभभोग को सामाजिक या लोक कल्याणकारी कार्यों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इस स्थिति में जैन विचारणा के अनुसार वैयक्तिक सुखों का परित्याग समाज के कल्याण के लिए किया जाना चाहिए, यही सिद्ध होता है। वैयक्तिक सुखभोग का लोककल्याण के हेतु परित्याग किया जाना चाहिए यह मानकर जैन-विचारणा अपयोगितावादी दृष्टिकोण के निकट आ जाती है। लेकिन बौद्धिक सुख और लोक कल्याणकारी कार्यों के सम्पादन में रहा हुआ सुख भी सर्वोपरि नहीं रहता, जबकि आरोग्य (स्वास्थ) एवं जीवन का प्रश्न उपस्थित हो जाता है, यद्यपि बौद्धिक-सुख अनुसरणीय है, तथापि स्वास्थ्य और जीवन की सुरक्षा के निमित्त उनका भी परित्याग आवश्यक है। काम-भोग, बौद्धिक-सुख और स्वास्थ्य एवं जीवन सम्बन्धी सुखों की आकांक्षाएँ अपने में साध्य नहीं हैं। आकांक्षाएँ सन्तोष के लिए होती हैं, अतः सन्तोषजनित सुख इन सब आकांक्षाजनित सुखों से श्रेष्ठ है, क्योंकि जिन सुखों के मूल में आकांक्षा या इच्छा होती है, वे सुख दुःखप्रत्युत्पन्न हैं। आकांक्षा या इच्छा एक मानसिक तनाव है और सभी तनाव दुःखद होते हैं, अतः दुःखप्रत्युपन्न सुख सापेक्ष रूप में सुख होते हुए भी निम्नस्तरीय सुख ही हैं, लेकिन सन्तोषवृत्ति का सुख ऐसा है, जिसके कारण इच्छा या तनाव समाप्त हो जाता है। उसका अन्त सुख-रूप ही है, अतः उसके लिए इन सभी प्रकार के सुखों का परित्याग किया जा सकता है, लेकिन सन्तोष-सुख भी अपने में साध्य नहीं है, सन्तोष से बड़ा सुख निष्क्रमण (त्याग) का है। सन्तोष में इच्छा का अभाव नहीं है, लेकिन निष्क्रमण में इच्छा, ममत्व या
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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