________________ जैन धर्म एवं दर्शन-516 जैन- आचार मीमांसा-48 ___3. प्रत्येक व्यक्ति का सुख समान है। किसी एक व्यक्ति को अपना. सुख जितना काम्य है, उतना ही दूसरे व्यक्ति का, अतः सुख की मात्रा को बढ़ाने की चेष्टा करनी चाहिए, चाहे वह किसी का भी सुख हो। 4. सर्वाधिक सुख का अर्थ है- सुख की मात्रा में अधिक से अधिक संभाव्य वृद्धि / इसका अर्थ यह भी है कि सुख और दुःख को मापा जा सकता है / ___5. परोपकारी होने का अर्थ है- सामाजिक सुख या लोकोपयोगिता में वृद्धि करना। इसी प्रकार, स्वार्थी होने का मतलब है- सामाजिक-सुख में कमी करना / __ इस प्रकार, हम देखते हैं कि नैतिक सुखवाद की धारणा सुख को काम्य मानते हुए भी लोकहित या लोकमंगल को स्थान देती है / जैन आचारदर्शन में नैतिक सुखवाद के दोनों पक्ष, अर्थात् सुखों की काम्यता एवं उपयोगिता (लोकहित) समाहित हैं, जिन पर हम यहाँ विचार करेंगे। __ जैन आचारदर्शन में नैतिक-सुखवाद के समर्थक कुछ तथ्य मिलते हैं। महावीर ने कई बार यह कहा कि 'जिससे सुख हो, वह करो। इस कथन के आधार पर यह फलित निकाला जा सकता है कि महावीर नैतिक सुखवाद के समर्थक थे। यद्यपि हमें यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि सुख शब्द का जो अर्थ महावीर की दृष्टि में था, वह वर्तमान सुख शब्द की व्याख्या से भिन्न था। एक अन्य दृष्टि से भी जैन नैतिकता को सुखवादी कहा जा सकता है, क्योंकि जैन नैतिक आदर्श मोक्ष आत्मा की अनन्त सौख्यं की अवस्था है इस प्रकार जैन नैतिकता सुख के अनुसरण करने का आदेश देती है। इस अर्थ में भी वह सुखवादी है, यद्यपि यहाँ पर उसका सुख की उपलब्धि का नैतिक आदर्श भौतिक सुख की उपलब्धि का आदर्श नहीं है, वरन् वह तो परमानन्द की अवस्था की उपलब्धि का आदर्श है। सामान्य अर्थ में सुख-दुःख सापेक्ष शब्द हैं, एक विकल्पात्मक स्थिति है। दुःख के विपरीत जो है, उसकी अनुभूति है, वह सुख है, या वहं सुख दुःख का अभाव है। जैन दर्शन 'निर्वाण' में जिस अनन्त सौख्य की कल्पना