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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-515 जैन- आचार मीमांसा-47 उसकी कामना करते हैं। सामान्य सुख काम्य है, इसके लिए इसे छोड़कर कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता कि प्रत्येक मनुष्य सुख की कामना कस्ता है, लेकिन सुखवाद को मनोवैज्ञानिक आधार पर खड़ा करने का मिल का यह प्रयास तार्किक दृष्टि से दूषित ही है। यदि सभी मनुष्य स्वभावतः सुख की कामना करते हैं, तो फिर 'सुख की कामना करनी चाहिए'- इस कथन का कोई अर्थ नहीं रह जाता, जबकि नैतिक आदेश के लिए 'चाहिए'- आवश्यक है, लेकिन मनोवैज्ञानिक-सुखवाद इस 'चाहिए' के लिए कोई अवकाश नहीं छोड़ता। इसी कारण, सिजविक तथा समकालीन विचारकों में ड्यरेंटड्रेक आदि ने सुखवाद को विशुद्ध नैतिक-आधार पर खड़ा किया है। फिर भी, उपर्युक्त सभी विचारकों के लिए सुख काम्य है और उनकी दृष्टि में नैतिक-आदेश है- 'सुख के लिए प्रयत्न करना चाहिए।' ... नैतिक सुखवादी-विचारधारा की दूसरी मान्यता यह थी कि वस्तुतः जो सुख काम्य है, वह वैयक्तिक नहीं, वरन् सामान्य सुख है। यह धारणा उपयोगितावाद के नाम से भी जानी जाती है। उपयोगितावाद की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं___ 1. अधिक से अधिक सुख. . -- 2. उच्चतमसुख (एन्द्रिक-सुखों की अपेक्षा मानसिक-सुख उच्च कोटि * का माना गया है) 3. अधिक से अधिक संख्या का अधिक से अधिक सुख 4. बहुसंख्यकों का सुख 5. सार्वभौम एवं सामान्य सुख . : 6. सामाजिक सुख इन आधारों पर उपयोगितावाद के मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं.. 1. सुख-प्राप्ति और दुःख–मुक्ति, केवल यह दो ही स्वतःसाध्य के रूप में काम्य हैं। अन्य सभी वस्तुएँ केवल इसीलिए काम्य हैं कि वे या तो सुखपूर्ण हैं या सुखवर्द्धक हैं, अथवा दुःखों का नाश करने वाली हैं। * 2. जिस अनुपात में कोई कर्म सुख या दुःख देता है, उसी अनुपात में वह शुभ या अशुभ होता है।
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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