________________ जैन धर्म एवं दर्शन-512 जैन - आचार मीमांसा-44 प्राणियों को सुख प्रिय है, अनुकूल है और दुःख अप्रिय है और प्रतिकूल है। इस प्रकार, जैन-आचारदर्शन में सुख की अभिलाषा को प्राणियों की प्रकृति का स्वाभाविक-लक्षण मानकर मनोवैज्ञानिक सुखवाद की धारणा को स्थान दिया गया है। इतना ही नहीं, जैन-विचारकों ने इस मनोवैज्ञानिक-सुखवादी धारणा का अपनी नैतिक-मान्यताओं के संस्थापन में भी उपयोग किया है। सूत्रकृतांग में प्राणियों की सुखाकांक्षा और दुःख से रक्षण की मनोवैज्ञानिक प्रकृति का नैतिक मानक के रूप में सुन्दर वर्णन है। सूत्रकृतांग का वह कथाप्रसंग इस प्रकार है, 'क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी-ऐसे विभिन्न वादी, जिनकी संख्या 363 कही जाती है, (जो) सब लोगों को परिनिर्वाण और मोक्ष का उपदेश देते हैं। वे अपनी-अपनी प्रज्ञा, छन्द, शील, दृष्टि, रुचि, प्रवृत्ति और संकल्प के. अनुसार अलग-अलग धर्ममार्ग स्थापित करके उनका प्रचार करते हैं। एक समय ये सब वादी एक बड़ा घेरा बनाकर एक स्थान पर बैठे थे। उसं समय एक मनुष्य जलते हुए अंगारों से भरी हुई एक कड़ाही लोहे की संडासी से पकड़कर, जहाँ वे सब बैठे थे, लाया और कहने लगा, हे मतवादियों, तुम सब अपने-अपने धर्म के प्रतिपादक हो और परिनिर्वाण और मोक्ष का उपदेश देते हो, तुम इस जलते हुए अंगारों से भरी हुई कड़ाही को एक मुहूर्त तक खुले हुए हाथ में पकड़े रहो। ऐसा कहकर वह मनुष्य वह कड़ाही प्रत्येक के हाथ में रखने गया, पर वे अपने-अपने हाथ पीछे हटाने लगे। तब उस मनुष्य ने उनसे पूछा, 'हे मतवादियों, तुम अपने हाथ पीछे क्यों हटाते हो? हाथ न जले, इसीलिए? और जले, तो क्या हो? दुःख? दुःख न हो, इसलिए अपने हाथ पीछे हटाते हो, यही बात है न?' तो इसी माप से दूसरों के सम्बन्ध में भी विचार करना, यही धर्मविचार है या नहीं? बस, तब तो नापने का गज-प्रमाण और धर्मविचार मिल गए। यह प्रसंग जैन नैतिकता की मनोवैज्ञानिक सुखवादी-धारणा का एक अच्छा चित्रण है, जिसमें न केवल नैतिकता का मनोवैज्ञानिक-पक्ष प्रस्तुत है, वरन् उसे नैतिक-सिद्धान्तों की स्थापना का आधार भी बनाया गया है। फिर भी, तुलनात्मक-दृष्टि से इस मनोवैज्ञानिक-सुखवाद के दोनों पक्षों