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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-513 जैल- आचार मीमांसा-45 पर विचार करना आवश्यक है। निषेधात्मक-दृष्टि से यह प्राणियों की दुःख-निवारण की स्वाभाविक-प्रवृत्ति को अभिव्यक्त करता है, जबकि विधायक-दृष्टि से प्राणियों की सुख प्राप्त करने की स्वाभाविक अभिरुचि की ओर संकेत करता है। __अन्य भारतीय दर्शनों में मनोवैज्ञानिक सुखवाद- न केवल जैन-दर्शन, वरन् अन्य भारतीय-दर्शनों ने भी सुखवाद का समर्थन किया है। भौतिक-सुखवाद को मानने वाले चार्वाकों का सिद्धान्त तो सर्वप्रसिद्ध ही है। उनके अनुसार, इन्द्रियों की वासनाओं को सन्तुष्ट करते हुए सम्पूर्ण जीवन में सुख को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। चार्वाक के अतिरिक्त अन्य दर्शनकारों ने भी सुखवादं का समर्थन किया है। महाभारत में कहा गया है कि सभी सुख चाहते हैं और दुःख से उद्विग्न होते हैं। छान्दोग्य-उपनिषद् में भी इसी सुखवादी दृष्टिकोण का समर्थन है। उसमें कहा गया है कि जब मनुष्य को सुख प्राप्त होता है, तभी वह कर्म करता है। बिना सुख मिले कोई कर्म नहीं करता। अतः, सुख की ही विशेष रूप से जिज्ञासा करना चाहिए। चाणक्य ने भी मनुष्य को स्वार्थी माना है और उसके स्वार्थ को नियन्त्रित करने के लिए राज्य सत्ता को अनिवार्य माना है। उसके अनुसार, मनुष्य स्वभावतः सुख की प्राप्ति का प्रयत्न करता है। उद्योतकर ने मानव-मनोविज्ञान के आधार पर सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति को मानव-जीवन का साध्य बताया है। भारतीय-परम्परा में सुखवाद की धारणा की अभिव्यक्ति प्राचीन समय से ही रही है, लेकिन चार्वाक दर्शन को छोड़कर अन्य भारतीय-दर्शनों ने वैयक्तिक-सुख के स्थान पर सदैव सार्वजनिक-सुख की ही कामना की है। भारतीय साधक प्रतिदिन यह प्रार्थना करता है कि सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। . सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।। (यजुर्वेद,शान्तिपाठ) पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक-सुखवाद से तुलना करने पर हमें इसकी एक विशिष्टता का परिचय मिलता है। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक-सुखवाद अपने सिद्धान्त का अनुसरण करना अनिवार्य मानता है, लेकिन सुख के सम्पादन
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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