________________ जैन धर्म एवं दर्शन-511 जैन- आचार मीमांसा-43 आते हैं। अगले पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि उनका जैन दर्शन के साथ कितना साम्य है। प्रयोजनात्मक अथवा साध्यवादी-सिद्धान्त _ नैतिक-प्रतिमान के दूसरे प्रकार के सिद्धान्तों को प्रयोजनात्मक या साध्यवादी सिद्धान्त कहते हैं। इन सिद्धान्तों के अनुसार किसी कर्म की नैतिकता का निर्णय उसके साध्य, प्रयोजन, परिणाम, आदर्श, परमशुभ अथवा मूल्य के आधार पर होना चाहिए, लेकिन प्रयोजनवादी, विचारक कर्म के वास्तविक लक्ष्य के विषय में एकमत नहीं हैं। इन विचारकों ने विभिन्न साध्य माने हैं और इस कारण साध्यवादियों के भी कई सम्प्रदाय हैं, उनमें (1) सुखवाद, (2) विकासवाद, (3) बुद्धिपरतावाद, (4) पूर्णतावाद एवं (5) मूल्यवाद प्रमुख हैं। सुखवाद __ सुखवाद के अनुसार कर्म का साध्य सुख की प्राप्ति अथवा तृप्ति है। वही कर्म शुभ है, जो.हमारी इन्द्रियपरता (वासनाओं) को सन्तुष्ट करता है और वह कर्म अशुभ है, जिससे वासनाओं की पूर्ति अथवा सुख की प्राप्ति नहीं होती। सुखवादियों के भी अनेक उपसम्प्रदाय हैं। उनमें मनोवैज्ञानिक-सुखवाद और नैतिक-सुखवाद प्रमुख हैं। नैतिक सुखवादी-परम्परा में भी अनेक उपसम्प्रदाय हैं। सर्वप्रथम मनोवैज्ञानिक सुखवाद ओर जैन आचारदर्शन के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में विचार करना उचित होगा। मनोवैज्ञानिक-सुखवाद और जैन आचारदर्शन मानता है कि मनोवैज्ञानिक सुखवाद एक तथ्यपरक सिद्धान्त है, जिसके अनुसार यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि व्यक्ति.सदैव सुख के लिए प्रयास करता है। जैन-आचारदर्शन भी यह मानता है कि समस्त प्राणीवर्ग स्वभाव से ही सुखाभिलाषी है। दशवैकालिकसूत्र स्पष्ट रूप से प्राणीवर्ग को परम (सुख) धर्मी मानता है। टीकाकारों ने परम शब्द का अर्थ सुख करते हुए इस प्रकार व्याख्या की है, 'पृथ्वी आदि स्थावर प्राणी और द्वीन्द्रिय आदि त्रस प्राणी, इस प्रकार सर्व प्राणी परम अर्थात् सुखधर्मी हैं, सुखाभिलाषी हैं। सुख की अभिलाषा करना प्राणियों का नैसर्गिक स्वभाव है। आचारांगसूत्र में भी कहा है कि सभी