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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-510 जैन- आचार मीमांसा-42 की दृष्टि से इनका एक क्रम भी तैयार कर सकते हैं, जिसमें द्वेष सबसे निम्न और धर्म सबसे उच्च होगा और ऐसी स्थिति में हम यह भी पाएंगे कि जैन-दर्शन का वह वर्गीकरण मार्टिन्यू के उपर्युक्त तारतम्य से भी काफी समानता रखेगा। क्रम की दृष्टि से इन्हें इस प्रकार रखा जा सकता है- (1) द्वेष, (2) राग, (3) लोभ, (4) मान, (5) माया-कपटवृत्ति (6) क्रोध (7) ओघ (8) भय, (7) परिग्रह, (10) मैथुन, (11) आहार, (12) लोक-(सामाजिकता) और (13) धर्म। कुछ मतभेदों को छोड़कर यह क्रम-व्यवस्था मार्टिन्यू के कर्मस्रोत के नैतिक-तारतम्य से काफी निकट एक अन्य अपेक्षा से भी मार्टिन्यू के कर्मस्रोत के नैतिक तारतम्य की तुलना जैन आचारदर्शन से की जा सकती है। यदि हम कर्मप्रेरकों के रूप में मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन, मिथ्याचारित्र, सम्यज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र तथा आहार, भय, मैथुन और परिग्रह-इन चार संज्ञाओं को स्वीकार करें, तो भी बन्धन की तीव्रता की दृष्टि से एक क्रम तैयार किया जा सकता है, जो मार्टिन्यू के पूर्वोक्त तारतम्य के काफी निकट होगा। वह क्रम इस प्रकार होगा 1. मिथ्यादर्शन-सन्देहशीलता, आकांक्षा एवं अश्रद्धा। 2. मिथ्याज्ञान-नैतिक-विवेक एवं बुद्धि का अभाव 3. मिथ्याचारित्र-क्रोध, मान, माया और लोभ के कर्मप्रेरक। 4. भयवृत्ति-भय से उत्पन्न कर्म। 5. परिग्रह-संचय की वत्ति एवं आसक्तिभाव। 6. मैथुन-ऐन्द्रिक-सुखों की इच्छा एवं यौनप्रवृत्तियाँ। . 7. आहार-शरीर-रक्षा एवं क्षुधानिवृत्ति की क्रियाएँ। 8. सम्यकचारित्र-सदाचरण। 9. सम्यग्ज्ञान-नैतिक-विवेक। 10. सम्यग्दर्शन-श्रद्धा एवं आत्मविश्वास। यह क्रम अपने पूर्णतावादी दृष्टिकोण के आधार पर उन दोषों से ग्रसित भी नहीं होता, जो दोष मार्टिन्यू के नैतिक-दर्शन में हैं। आन्तरिक-विधानवाद के विरोध में साध्यवादी और विकासवादी-सिद्धान्त
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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