________________ जैन धर्म एवं दर्शन-509 जैन- आचार मीमांसा-41 मार्टिन्यू के अनुसार वह तारतम्य निम्न है 1. गौण विकर्षण- अविश्वास, द्वेष, शंकाशीलता / 2. गौण जैविक-प्रवृत्तियाँ-भोजन तथा मैथुन की पशु-प्रवृत्तियाँ / 3. प्राथमिक जैविक-प्रवृत्तियाँ-भोजन तथा मैथुन की पशु-प्रवृत्तियाँ / 4. प्राथमिक पाशविक-प्रवृत्तियाँ अनियन्त्रित सक्रियता | 5. लाभ का लोभ-पशु-प्रवृत्ति की उपज / 6. गौण आकर्षण-सहानुभूतिमूलक संवेदनाओं की भावनात्मक वृत्ति / 7. प्राथमिक विकर्षण-घृणा, भय, क्रोध / 8. गौण पाशविक-प्रवृत्तियाँ-सत्ता .मोह अथवा महत्वाकांक्षा। 9. गौण अभिभावनाएँ-संस्कृति, प्रेम। 10. प्राथमिक भावनाएँ-आश्चर्य तथा प्रशंसा / 11. प्राथमिक आकर्षण-वात्सल्य, सामाजिक-मैत्री, उदारता, कृतज्ञता। 12. दया का प्राथमिक आकर्षण। 13. श्रद्धा की प्राथमिक भावना। इस प्रकार, मार्टिन्यू के अनुसार कर्म-स्रोतों के इस तारतम्य में श्रद्धा सर्वोच्च नैतिक गुण है और गौण-विकर्षण, अर्थात् अविश्वास, मात्सर्य और सन्देहशीलता सबसे निम्नतम दुर्गुण हैं। श्रद्धा मात्र गुण है और मात्सर्य, द्वेष आदि मात्र दुर्गुण हैं। शेष सभी कर्मस्रोत इन दोनों के बीच में आते हैं और उनमें गुण और अवगुण के विभिन्न प्रकार के समन्वय हैं। नैतिक-दृष्टि से वही कर्म शुभ होगा, जो उच्च कर्मप्ररकों से उत्पन्न होगा। जो कर्म जितने अधिक निम्न कर्मस्रोत से उत्पन्न होगा, वह उतना ही अधिक अनैतिक होगा। संक्षेप में, मार्टिन्यू के यही नैतिक-विचार हैं। मार्टिन्यू के. नैतिक-दर्शन की तुलना जैन-परम्परा से की जा सकती है। जैन-परम्परा के अनुसार कर्मप्रेरक ये हैं- (1) राग, (2) द्वेष, (3) क्रोध, (4) मान, (5) माया, (6) लोभ, (7) भय, (8) परिग्रह, (9) मैथुन, (10) आहार, (11) लोक, (12) धर्म और (13) ओघ / इनमें राग और द्वेष दो कर्मबीज हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ-ये चार कषाय हैं तथा शेष संज्ञाएँ हैं। यदि हम मार्टिन्यू के उपर्युक्त वर्गीकरण से तुलना करें, तो इनमें से अधिकांश वृत्तियाँ उसमें मौजूद हैं। यही नहीं, यदि हम चाहें तो बन्धन की तीव्रता