SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-508 जैन-आचार मीमांसा-40 अन्तरात्मा जब दो विपरीत आदेश देती है, तो उनके अन्तर्विरोध को दूर करना कठिन हो जाता है। किंकर्तव्यविमूढ़ता की अवस्था में बटलर की अन्तरात्मा नैतिक-समस्या का समाधान प्रस्तुत नहीं करती / . (उ) मनोवैज्ञानिक अन्तरात्मवाद- मनोवैज्ञानिक अन्तरात्मवाद के प्रवर्तक मार्टिन्यू हैं। मार्टिन्यू ने अपने सिद्धान्त का बहुत कुछ विकास बटलर के अन्तरात्मवाद से ही किया है, फिर भी उन्होंने उसे सुदृढ़ मनोवैज्ञानिक आधारों पर स्थापित करने का प्रयास किया है। मार्टिन्यू के अनुसार, अन्तरात्मा ही शुभाशुभ का निर्णायक है। वह शुभाशुभ का विधान नहीं है, वरन् उस विधान को दिखाता है, जो कर्मों को शुभाशुभ बनाता है। उसके अनुसार, अन्तरात्मा कर्मों के अच्छे-बुरे तारतम्य का मात्र द्रष्टा है। सभी कर्मों के स्रोत होते हैं और इन स्रोतों में ही उनके अच्छे-बुरे तारतम्य का एक विधान है। मार्टिन्यू के अनुसार, कर्मप्रेरक दो प्रकार के हैं- (1) प्राथमिक और (2) गौण। प्राथमिक कर्मप्रेरक चार प्रकार के हैं- (i) प्राथमिक-प्रवर्तक, जिनमें क्षुधा, मैथुन एवं पाशविक-सक्रियताएँ अर्थात् आराम की प्रवृत्ति हैं, (2) प्राथमिक-विकर्षण, जिनमें द्वेष, क्रोध और भय समाहित हैं, (3) प्राथमिक-आकर्षण- यह रागभाव या आसक्ति है, इसमें वात्सल्य (पुत्रैषणा), समाजप्रेम (लोकैषणा) और करुणा या सहानुभूति के तत्त्व समाहित हैं, (4) प्राथमिक-समाजप्रेम (लोकैषणा) और करुणा या सहानुभूति के तत्त्व समाहित हैं, (4) प्राथमिक-भावनाएँ, जिनमें जिज्ञासा, विस्मय और श्रद्धा का समावेश है। ये सत्य; सुन्दर और शिव (कल्याण) की ओर प्रवृत्त करते हैं। ये ज्ञान, अनुभूति और कर्म के प्रेरक हैं। दूसरे गौण कर्मप्रेरक भी चार प्रकार के हैं- (1) गौर प्रवृत्तियाँ-जिसमें स्वादप्रियता, कामुकता, लोभ और मद समाहित हैं, (2) गौण विकर्षण-इनमें मात्सर्य, प्रतिकार और शंकाशीलता समाविष्ट हैं (3) गौण आकर्षण- इनमें स्नेह, सामाजिकता और दयाभाव का समावेश है, (4) गौण भावनाएँ- इनमें सत्याराधना, सौन्दर्योपासना और धर्मनिष्ठा समाहित हैं। मार्टिन्यू के अनुसार, नैतिक-दृष्टि से उपर्युक्त सभी कर्म-स्रोत समान नैतिक-स्तर के नहीं हैं, वरन् उनमें नैतिक स्तर की दृष्टि से एक तारतम्य है, जो निम्नतम से उच्चतम नैतिक अवस्था को अभिव्यक्त करता है।
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy