________________ जैन धर्म एवं दर्शन-495 जैन- आचार मीमांसा-27 सामाजिक-हितों की वरेण्यता का उत्तर नीति की मूल्यवत्ता को स्वीकार किए बिना नहीं दिया जा सकता है। इस प्रकार, परिवर्तनशीलता के नाम पर स्वयं नीति की मूल्यवत्ता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता। नैतिक-मूल्यों के अस्तित्व की स्वीकृति में ही उनकी परिवर्तनशीलता का कोई अर्थ हो सकता है, उनके नकारने में नहीं। यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि समाज भी नैतिक मूल्यों का सृजन नहीं करता है। समाज किन्हीं आचरण के प्रारूपों को विहित या अविहित मान सकता है, किन्तु सामाजिक-विहितता और अविहितता नैतिक-औचित्य या अनौचित्य से भिन्न है। एक कर्म अनैतिक होते हुए भी विहित माना जा सकता है, अथवा नैतिक होते हुए भी अविहित माना जा सकता है। कंजर जाति में चोरी, आदिम कबीलों में नरबलि या मुस्लिम समाज में बहुत-पत्नीप्रथा विहित है। राजपूतों में लड़की को जन्मते ही मार डालना कभी विहित रहा था। अनेक देशों में वेश्यावृत्ति, समलैंगिकता, मद्यपान आज भी विहित और वैधानिक है, किन्तु क्या इन्हें नैतिक कहा जा सकता है? नग्नता. को, शासनतन्त्र की आलोचना को अविहित एवं अवैधानिक माना जा सकता है, किन्तु इससे नग्न रहना या शासक-वर्ग के गलत कार्यों की आलोचना को अनैतिक नहीं कहा जा सकेगा। मानवों के समुदाय विशेष के द्वारा किसी कर्म को विहित या वैधानिक मान लेने मात्र से वह नैतिक नहीं हो जाता। गर्भपात वैधानिक हो सकता है, लेकिन नैतिक कभी नहीं। नैतिक मूल्यवत्ता निष्पक्ष विवेक के प्रकाश में आलोकित होती है। वह सामाजिक-विहितता या वैधानिकता से भिन्न है। समाज किसी कर्म को अविहित बना सकता है, किन्तु उचित या अनुचित नहीं। - नैतिक-प्रत्ययों को अथवा शुभ को समाज की आदत से उत्पन्न हुआ नहीं माना जा सकता। इसके विपरीत, जिसे सामाजिक-सदाचार कहा जाता है, वह अच्छाई या शुभ से उत्पन्न होता है। नैतिक-सन्देहवाद के मूल में यह भ्रान्ति है कि वह मूल्यों को व्यावहारिक अनुभवों में ही खोजने का प्रयास करता है, जबकि वे उनसे ऊपर भी होते हैं। नैतिक-प्रतिमान . या आदर्श हमारे व्यवहारों से प्रभावित नहीं होता, बल्कि उससे हमारे व्यवहार प्रभावित होते हैं। वह हमारे व्यवहारों के मूल में निहित हैं।