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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-494 जैन - आचार मीमांसा -28 पुनश्च, नैतिक-प्रत्ययों को सांवेगिक-अभिव्यक्ति या रुचि-सापेक्ष मानने पर भी स्वयं नीति की मूल्यवत्ता को निरस्त नहीं किया जा सकता है। यदि नैतिक-प्रत्यय सांवेगिक-अभिव्यक्ति है, तो प्रश्न यह है कि नैतिक-आवेगों का दूसरे सामान्य आवेगों से अन्तर का आधार क्या है? वह कौन-सा तत्त्व है, जो नैतिक-आवेग को दूसरे आवेगों से अन्तर करता है और उसका आधार क्या है? यह तो सुनिश्चित सत्य है कि नैतिक-आवेग दूसरे आवेगों से भिन्न है। दायित्वबोध का आवेग; अन्याय के प्रति आक्रोश का आवेग और क्रोध का आवेग- ये तीनों भिन्न-भिन्न स्तरों के आवेग हैं। जो चेतना इनकी भिन्नता का बोध करती है, वही नैतिक-मूल्यों की द्रष्टा भी है। नैतिक मूल्यों को स्वीकार किए. बिना हम भिन्न-भिन्न प्रकार के आवेगों का अन्तर नहीं कर सकते। यदि इसका आधार पसन्दगी या रुचि है, तो फिर पसन्दगी या नापसन्दगी के भावों की उत्पत्ति का आधार क्या है? नैतिक-भावों की व्याख्या मात्र पसन्दगी और नापसन्दगी के रूप में ही की जा सकती है। मानवीय-पसन्दगी अथवा रुचि केवल मन की मौज या मन की तरंग पर निर्भर नहीं है। इन्हें पूरी तरह आत्मनिष्ठ नहीं माना जा सकता, इनके पीछे एक वस्तुनिष्ठ आधार भी होता है। आज हमें उन आधारों का अन्वेषण करना होगा, जो हमारी पसन्दगी और नापसन्दगी को बनाते या प्रभावित करते हैं। वे कुछ आदर्श, सिद्धान्त, दृष्टियाँ या मूल्यबोध हैं, जो हमारी पसन्दगी या नापसन्दगी को बनाते हैं और जिनके आधार पर हमारी रुचियाँ गठित होती हैं। मानवीय-रुचियाँ और मानवीय-पसन्दगी या नापसन्दगी आकस्मिक या प्राकृतिक नहीं है। जो तत्त्व इनको बनाते हैं, उनमें नैतिक मूल्य भी हैं। ये पूर्णतया व्यक्ति और समाज की रचना भी नहीं हैं, अपितु व्यक्ति के मूल्यांकन के बोध से भी उत्पन्न होते हैं। वस्तुतः, मूल्यों की सत्ता अनुभव की पूर्ववर्ती है, मनुष्य मूल्यों का द्रष्टा है, सृजक नहीं। अतः रुचिसापेक्षता के आधार पर स्वयं नीति की मूल्यवत्ता को निरस्त नहीं किया जा सकता है। दूसरे, यदि हम औचित्य एवं अनौचित्य का आधार सामाजिक-उपयोगिता को मानते हैं, तो यह भी ठीक नहीं। मेरे व्यक्तिगत स्वार्थों से सामाजिक हत क्यों श्रेष्ठ एवं वरेण्य हैं? इस प्रश्न का हमारे पास क्या उत्तर होगा?
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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