________________ जैन धर्म एवं दर्शन-493 जैन- आचार मीमांसा-25 अस्तित्व नहीं है और उसके सन्दर्भ में विचार करना निरर्थक है, किन्तु जैन-दर्शन को नैतिक-सन्देहवाद अस्वीकार रहा है। __ जैन-दार्शनिकों को किसी भी प्रकार का नैतिक-सन्देहवाद स्वीकार नहीं है। महावीर नैतिक-प्रतिमान की सत्यता को स्वीकार करते हुए कहते हैं कि 'कल्याण (शुभ) तथा पाप (अशुभ) हैं, ऐसा ही निश्चय करें, इससे अन्यथा नहीं।' महावीर का यह वचन स्पष्ट कर देता है कि जैन-विचारणा में नैतिक-सन्देहवाद का कोई स्थान नहीं है। उन्होंने ऐसी मान्यता को, जो शुभ और अशुभ की वास्तविक सत्ता में विश्वास नहीं रखती, सदाचारघातक मान्यता कहा है। बुद्ध और महावीर के समकालीन विचारक संजय वेलट्ठिपुत्त भी इसी - प्रकार के नैतिक-सन्देहवाद में विश्वास करते थे। महावीर ने उनकी मान्यता को अनुचित ही माना था। संजय वेलट्ठिपुत्त का दर्शन ह्यूम के अनुभववाद, कांट के अज्ञेयवाद एवं तार्किक भाववादियों के विश्लेषणवाद का पूर्ववर्ती स्थूल रूप था। उसकी आलोचना करते हुए कहा गया है कि ये विचारक तर्क-वितर्क में कुशल होते हुए भी सन्देह से परे नहीं जा सके। . वस्तुतः नैतिक-सन्देहवादं मानवीय आदर्श का निरूपण करने में समर्थ नहीं है, चाहे उसका आधार नैतिक-प्रत्ययों का विश्लेषण हो, अथवा उसे मानव की मनोवैज्ञानिक-अवस्थाओं या सामाजिक-आधारों पर स्थापित किया गया हो। यदि हम शुभ को अपनी मनोवैज्ञानिक-भावावस्थाओं अथवा सामाजिक-परम्पराओं में खोजने का प्रयास करेंगे, तो वह उनमें उपलब्ध नहीं होगा। जैन-दार्शनिकों के अनुसार नैतिक–आदर्श तर्क के माध्यम से नहीं खोजा जा सकता, क्योंकि वह तर्क का विषय नहीं है, उसी प्रकार मानव के यान्त्रिक एवं सामाजिक व्यवहार में भी शुभ की खोज करना व्यर्थ का प्रयास ही होगा। इन विचारकों की मूलभूत भ्रान्ति यह है कि वे भाषा को पूर्ण एवं सक्षम रूप से देखते हैं, जबकि भाषा स्वयं अपूर्ण है। वह पूर्णता के नैतिक-साध्य का विश्लेषण कैसे करेगी? इसी प्रकार, मनुष्य को मात्र यान्त्रिक एवं अन्धवासनाओं से चलने वाला प्राणी मान लेना भी मानव-प्रकृति का यथार्थ विश्लेषण नहीं होगा /