________________ जैन धर्म एवं दर्शन-743 जैन- आचार मीमांसा-275 का उपयोग हुआ है; वे भी जैनदृष्टि की लोकमंगलकारी भावना को स्पष्ट करते हैं। तीर्थङ्करों का प्रवचन एवं धर्म-प्रवर्तन प्राणियों के अनुग्रह के लिए होता है, न कि पूजा या सत्कार के लिए। 14 यदि यह माना जाए कि जैन-साधना केवल आत्महित, आत्मकल्याण की बात कहती है, तो फिर तीर्थंकर के द्वारा तीर्थप्रवर्तन या संघ-संचालन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, क्योंकि केवल्य की उपलब्धि के बाद उन्हें अपने कल्याण के लिए कुछ करना शेष ही नहीं रहता, अतः मानना पड़ेगा कि जैन-साधना का आदर्श आत्मकल्याण ही नहीं, वरन् लोक-कल्याण भी है। ___ जैन-दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव ही अधिक महत्व दिया है / जैन-दर्शन के अनुसार, साधना की सर्वोच्च ऊँचाई पर स्थित सभी जीवन्मुक्त आध्यात्मिक पूर्णता की दृष्टि से समान ही होते हैं, फिर भी आत्महितकारिणी और लोकहितकारिणी-दष्टि के आधार पर उनमें उच्चावच्च-अवस्था को स्वीकार किया गया है। एक सामान्य-केवली (जीवन्मुक्त) और तीर्थंकर में आध्यात्मिक-पूर्णताएँ समान ही होती हैं, फिर भी अपनी लोकहितकारी-दृष्टि के कारण ही तीर्थंकर को सामान्य-केवली की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार, जीवन्मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेने वालों में भी उनके लोकोपकारिता के आधार पर तीन वर्ग होते हैं__ 1. तीर्थंकर, 2. गणधर, 3. सामान्य-केवली। 1. तीर्थंकर-तीर्थंकर वह है, जो सर्वहित के संकल्प को लेकर साधना-मार्ग में आता है और आध्यात्मिक-पूर्णता प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी लोकहित में लगा रहता है। सर्वहित, सर्वोदय और लोक कल्याण ही उनके जीवन का ध्येय बन जाता है। 15 2. गणधर-सहवर्गीय-हित में संकल्प को लेकर साधना क्षेत्र में प्रविष्ट होने वाला और अपनी आध्यात्मिक-पूर्णता को प्राप्त कर लेने पर भी सहवर्गियों के हित एवं कल्याण के लिए प्रयत्नशील साधक गणधर है। समूह-हित या गण-कल्याण गणधर के जीवन का ध्येय होता है। 16 . 3. सामान्य-केवली-आत्म-कल्याण को ही जिसने अपनी साधना का ध्येय बनाया है और जो इसी आधार पर साधना मार्ग में प्रवृत्त होता हुआ आध्यात्मिक-पूर्णता की उपलब्धि करता है, वह सामान्य-केवली कहलाता है।" सामान्य-केवली को पारिभाषिक-शब्दावली में मुण्ड-केवली भी कहते हैं। जैनधर्म में विश्वकल्याण, वर्गकल्याणऔर वैयक्तिक-कल्याण की भावनाओं को लेकर तदनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण ही साधकों की ये विभिन्न कक्षाएँ निर्धारित की गई हैं, जिनसे विश्व-कल्याण की प्रवृत्ति के कारण ही तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। जिस प्रकार बौद्ध-विचारणा में बोधिसत्व और अर्हत् के आदर्शों में भिन्नता है, उसी प्रकार जैन-विचारणा में