________________ जैन धर्म एवं दर्शन-744 जैन- आचार मीमांसा-276 तीर्थंकर और सामान्य-केवली के आदर्शों में तरतमता है। दूसरे, जैन साधना में संघ (समाज) को सर्वोपरि माना गया है। संघहित समस्त वैयक्तिकसाधनाओं से ऊपर है, संघ के कल्याण के लिए वैयक्तिक-साधना का परित्याग करना भी आवश्यक माना गया है। आचार्य कालक की कथा इसका उदाहरण है।18 ___ स्थानांगसूत्र में जिन दस धर्मों (कर्तव्यों) 1' का निर्देश किया गया है, उनमें संघ-धर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म और कुलधर्म का उल्लेख इस बात का सबल प्रमाण है कि जैनदृष्टि न केवल आत्महित या वैयक्तिक-विकास तक सीमित है, वरन् उसमें लोकहित या लोककल्याण का अजस्र प्रवाह भी प्रवाहित है। यद्यपि जैन-दर्शन लोकहित, लोकमंगल की बात कहता है, परन्तु उसकी एक शर्त है कि परार्थ के लिए स्वार्थ का विसर्जन किया जा सकता है, लेकिन आत्मार्थ का नहीं / उसके अनुसार, वैयक्तिक भौतिक-उपलब्धियों को लोककल्याण के लिए समर्पित किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए, क्योंकि वे हमें जगत् से ही मिली हैं, वे संसार की ही हैं, हमारी नहीं / सांसारिक-उपलब्धियाँ संसार के लिए है, अतः उनका लोकहित के लिए विसर्जन किया जाना चाहिए, लेकिन आध्यात्मिक-विकास या वैयक्तिक-नैतिकता को लोकहित के नाम पर कुंठित किया जाना उसे स्वीकार नहीं / ऐसा लोकहित, जो व्यक्ति के चरित्र-पंतन अथवा आध्यात्मिककुण्ठन से फलित होता हो, उसे स्वीकार नहीं है। लोकहित और आत्महित के सन्दर्भ में उसका स्वर्णिम सूत्र है-आत्महित करो और यथाशक्य लोकहित भी करो, लेकिन जहाँ आत्महित और लोकहित में द्वन्द्व हो और आत्महित के कुण्ठन पर ही लोकहित फलित होता हो, वहाँआत्मकल्याण ही श्रेष्ठ है।20 आत्महित स्वार्थ नहीं है-आत्महित स्वार्थवाद नहीं है। आत्मकाम वस्तुतः निष्काम होता है, क्योंकि उसकी कोई कामना नहीं होती, इसलिए उसका कोई स्वार्थ भी नहीं होता। स्वार्थी तो वह होता है, जो यह चाहता है कि सभी लोग उसके हित के लिए कार्य करें / आत्मार्थी स्वार्थी नहीं है, उसकी दृष्टि तो यह होती है कि सभी अपने हित के लिए कार्य करें। स्वार्थ और आत्मकल्याण में मौलिक अन्तर यह है कि स्वार्थ की साधना में राग और द्वेष की वत्तियाँ काम करती हैं, जबकि आत्महित या आत्मकल्याण का प्रारम्भ ही राग-द्वेष की वृत्तियों की क्षीणता से होता है। स्वार्थ और परार्थ में संघर्ष की सम्भावना भी तभी है, जब उनमें राग-द्वेष की वृत्ति निहित हो। राग-भाव या स्वहित की वृत्ति से किया जाने वाला परार्थ भी सच्चा लोकहित नहीं है, वह तो स्वार्थ ही है। शासन द्वारा नियुक्त एवं प्रेरित समाजकल्याण अधिकारी वस्तुतः लोकहित का कर्ता नहीं है, वह तो वेतन के लिए काम करता है। इसी तरह, रागसे प्रेरित होकर लोकहित करने वाला भी सच्चे अर्थों में लोकहित का कर्ता नहीं है। उसके लोकहित के प्रयत्न राग की अभिव्यक्ति,