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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-742 जैन- आचार मीमांसा -274 किस रूप में स्व और पर के संघर्ष की सम्भावना को समाप्त करते हैं, इस बात की विवेचना के पूर्व हमें स्वार्थवाद और परार्थवाद की परिभाषा पर भी विचार कर लेना होगा। संक्षेप में, स्वार्थवाद आत्मरक्षण है और परार्थवाद आत्मत्याग है। मैकेन्जी लिखते हैं कि जब हम केवल अपने व्यक्तिगत साध्य की सिद्धि चाहते हैं, तब इसे स्वार्थवाद कहा जाता है, परार्थवाद है-दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास करना।' जैनाचार-दर्शन में स्वार्थ और परार्थ- यदि स्वार्थ और परार्थ की उपर्युक्त परिभाषा स्वीकार की जाए, तो जैन, बौद्ध एवं गीता के आचार-दर्शनों में किसी को पूर्णतया न स्वार्थवादी कहा जा सकता है और न परार्थवादी। जैन आचार-दर्शन आत्मा के स्वगुणों के रक्षण की बात कहता है। इस अर्थ में वह स्वार्थवादी है। वह सदैव ही आत्म-रक्षण यास्व-दया का समर्थन करता है, लेकिन साथ ही वह कषायात्मा या वासनात्मक-आत्मा के विसर्जन, बलिदान या त्याग को भीआवश्यक मानता है और इस अर्थ में वह परार्थवादी भी है। यदि हम मैकेन्जी की परिभाषा को स्वीकार करें और यह मानें कि व्यक्तिगत साध्य की सिद्धि स्वार्थवाद और दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास परार्थवाद है, तो भी जैन-दर्शन स्वार्थवादी और परार्थवादी-दोनों ही सिद्ध होता है। वह व्यक्तिगत आत्मा के मोक्ष या सिद्धि का समर्थन करने के कारण स्वार्थवादी तो होगा ही, लेकिन दूसरे की मुक्ति के हेतु प्रयासशील होने के कारण परार्थवादी भी कहा जाएगा। आत्मकल्याण, वैयक्तिक-बन्धन एवं दुःख से निवृत्ति की दृष्टि से तो जैन-साधना का प्राण आत्महित ही है, लेकिन लोक-करुणा एवं लोकहित की जिस उच्च भावना से अर्हत् - प्रवचन प्रस्फुटित होता है, उसे भी नहीं भुलाया जा सकता। जैन-साधना में लोक-हित-जैनाचार्य समन्तभद्र वीर-जिन-स्तुति में कहते हैं, 'हे भगवान्! आपकी यह संघ (समाज) व्यवस्था सभी प्राणियों के दुःखों का अन्त करने वाली और सबका कल्याण (सर्वोदय) करने वाली है।'' इससे ऊँची लोकमंगल की कामना क्या हो सकती है? प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भगवान् का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। जैन साधना लोक-मंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ती है। उसी सूत्र में आगे कहा है कि जैन साधना के पाँचों महाव्रत सर्व प्रकार से लोकहित के लिए ही हैं। अहिंसा की महत्ता बताते हुए कहा गया है कि साधना के प्रथम स्थान पर स्थित यह अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। यह भगवती-अहिंसा भयभीतों के लिए शरण के समान है, पक्षियों के आकाश-गमन के समान निर्बाध रूप से हितकारिणी है। प्यासों को पानी के समान, भूखों को भोजन के समान, समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के लिए औषधि के समान और अटवी में सहायक के समान है। तीर्थङ्कर- नमस्कारसूत्र (नमोत्थुणं) में तीर्थङ्कर के लिए लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, अभय के दाता आदि जिन विशेषणों
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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