SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-741 जैन- आचार मीमांसा-273 - स्वहित बनाम लोकहित नैतिक-चिन्तन के प्रारम्भ-काल से ही स्वहित और लोकहित का प्रश्न महत्वपूर्ण रहा है। भारतीय-परम्परा में एक ओर चाणक्य का कथन है कि स्त्री, धन आदि सबसे बढ़कर अपनी रक्षा का प्रयत्न करना चाहिए।' विदुर ने भी कहा है कि जो स्वार्थ को छोड़कर परार्थ करता है, जो मित्र (दूसरे लोगों) के लिए श्रम करता है वह मूर्ख ही है। दूसरी ओर, यह भी कहा जाता है कि स्वहित के लिए तो सभी जीते हैं, जो लोकहित के लिए जीता है, उसी का जीना सच्चा है। 3 जिसके जीने में लोकहित न हो, उससे तो मरण ही अच्छा है। 4 ___ पाश्चात्य-विचारक हरबर्ट स्पेन्सर ने तो इस प्रश्न को नैतिक-सिद्धान्तों के चिन्तन की वास्तविक समस्या कहा है। यहाँ तक कि पाश्चात्य आचार-शास्त्रीय विचारधारा में तो स्वार्थ और परार्थ की धारणा को लेकर दो पक्ष बन गए। स्वहितवादी-विचारक, जिनमें हाब्स, नीत्शे आदि प्रमुख हैं, यह मानते हैं कि मनुष्य प्रकृत्या केवल स्वहित या अपने लाभ से प्रेरित होकर कार्य करता है, अतः नैतिकता का वही सिद्धान्त समुचित है, जो मानव-प्रकृति की इस धारणा के अनुकूल हो। इनके अनुसार, अपने हित के लिए कार्य करने में ही मनुष्य का श्रेय है। दूसरी ओर; बेन्थम, मिल प्रभृति विचारक मानव की स्वसुखवादी मनोवैज्ञानिक-प्रकृति को स्वीकार करते हुए भी बौद्धिक-आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि परहित की भावना ही नैतिक-दृष्टि से न्यायपूर्ण है, अथवा नैतिक-जीवन का साध्य है। मिल परार्थ को स्वार्थ के बौद्धिक-आधार पर सिद्ध करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाते, वरन् आंतरिक-अंकुश (Internal Sanction) के द्वारा उसे स्वाभाविक भी सिद्ध करते हैं। उनके अनुसार, यह आन्तरिक-अंकुश सजातीयता की भावना है / यद्यपि यह जन्मजात नहीं है, तथापि अस्वाभाविक या अनैसर्गिक भी नहीं है। दूसरे अन्य विचारक भी, जिनमें बटलर, शापेनहावर एवं टालस्टाय आदि प्रमुख हैं, मानव की मनोवैज्ञानिकप्रकृति में सहानुभूति, प्रेम आदि की उपस्थिति दिखाकर परार्थवादी या लोकमंगलकारी आचारदर्शन का समर्थन करते हैं। हरबर्ट स्पेन्सर से लेकर ब्रेडले, ग्रीन, अरबल आदि अनेक समकालीन विचारकों ने भी मानव-जीवन के विभिन्न पक्षों को उभारते हुए सामान्य शुभ (कामन गुड) की अवधारणा के द्वारा स्वार्थवाद और परार्थवाद के बीच समन्वय साधने का प्रयास किया है। मानव-प्रकृति में विविधताएँ हैं, उसमें स्वार्थ और परार्थ के तत्त्व आवश्यक रूप से उपस्थित हैं। आचार-दर्शन का कार्य यह नहीं है कि वह स्वार्थवाद या परार्थवाद में से किसी एक सिद्धान्त का समर्थन या विरोध करे। उसका कार्य तो यह है कि अपने' और 'पराए के मध्य सन्तुलन बैठाने का प्रयास करे, अथवा आचार के लक्ष्य को इस रूप में प्रस्तुत करे कि जिसमें 'स्व' और 'पर' के बीच संघर्षों की सम्भावना का निराकरण किया जा सके। भारतीय आचार-दर्शन कहाँ तक और
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy