________________ जैन धर्म एवं दर्शन-490 जैन- आचार मीमांसा-22 है, श्रुति भी इस विषय में एकमत नहीं है, ऋषियों के कथन भी परस्पर विरेधी हैं, अतः उनके वचनों को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता। महावीर. और बुद्ध के समकालीन अज्ञानवादी विचारक संजय वलट्ठिपुत्त इसी नैतिक-सन्देहवाद का प्रतिनिधित्व करते थे। नैतिक-सन्देहवाद मूलरूप में यह मानकर चलता है कि किसी भी ऐसे नैतिक-प्रतिमान को खोज पाना असम्भव है, जिसे धर्माधर्म या उचित-अनुचित के निर्णय का प्रामाणिक आधार बनाया जा सके। पाश्चात्यआचारदर्शन में नैतिकसन्देहवाद की धारणा तार्किकआधारों पर पुष्ट हुई है। नैतिक-सन्देहवादी पाश्चात्यविचारक इस सम्बन्ध में तो एकमत हैं कि वे नैतिकमानक के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन नैतिक-मानक को अस्वीकार करने के उनके तर्क अलग-अलग हैं। उनके तीन वर्ग हैं। (अ) नैतिकसन्देहवाद की अर्थवैज्ञानिक युक्ति और तार्किकभाववाद तार्किकभाववाद को मानने वाले विचारकों में कारनेप, रसल एवं एअर प्रमुख हैं। ये नैतिक-आदेश एवं नैतिक-प्रत्ययों के भाषाविषयक विवेचन के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि नैतिक-प्रत्यय मात्र सांवेगिक अभिव्यक्तियाँ हैं और इनकी सत्यता और असत्यता के सन्दर्भ में विचार करना निरर्थक है। इनके अनुसार शुभं और अशुभ, धर्म और अधर्म को अच्छा या शुभ कहने का अर्थ यही है कि उसके कारण हृदय में जो भाव उत्पन्न होता है, वे सुखद लगते हैं। नैतिक-प्रत्यय आन्तरिक-भावों के उद्गार-मात्र हैं। अच्छाई का अर्थ है- सुखद अनुभूति। शुभ और अशुभ मूल्यात्मक निर्णय नहीं हैं, वर्णनात्मक निर्णय हैं। सुखद भाव के अतिरिक्त न कोई अच्छा है और दुःखद भाव के अतिरिक्त न कोई अशुभ या बुरा है। एअर के अनुसार जिन्हें नैतिकता के मौलिक प्रत्यय और परिभाषाएँ कहा जाता है, वे सभी प्रत्याभास मात्र हैं, क्योंकि जिस वाक्य में वे रहते हैं, उसे अपनी ओर से कोई अर्थ प्रदान नहीं करते। प्रत्याभास के रूप में वे मात्र हमारी प्रसन्नता या क्षोभ को प्रकट करते हैं। किसी कर्म को उचित कहकर हम उसके प्रति अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हैं और किसी कार्य को अनुचित कहकर हम उसके प्रति अपना क्षोभ प्रकट करते हैं।