________________ जैन धर्म एवं दर्शन-491 जैन- आचार मीमांसा -23 नैतिक-प्रत्ययों का अर्थ हमारे मनोभावों से जुड़ा हुआ है। प्रोफेसर कारनेप के.अनुसार, 'एक मूल्यात्मक कथन वस्तुतः व्याकरण की दृष्टि से छद्मरूप में प्रस्तुत एक आज्ञा से अधिक नहीं है। इसका मानवीय आचरण पर कुछ प्रभाव तो हो सकता है, लेकिन यह प्रभाव हमारी इच्छा या अनिच्छा से ही सम्बन्धित है। यह न तो सत्य हो सकता है, लेकिन यह प्रभाव हमारी इच्छा या अनिच्छा से ही सम्बन्धित है। यह न तो सत्य हो सकता है और न असत्य।' 'चोरी करना अनुचित है- इस कथन का अर्थ है, चोरी मत करो या मुझे चोरी पसन्द नहीं, इस प्रकार इसका कोई सत्य मूल्य नहीं है। इस प्रकार, तार्किक-भाववादी विचारक 'औचित्य', 'अनौचित्य', 'शुभ', 'अशुभ' एवं 'चाहिए' के नैतिक-प्रत्ययों को भावनात्मक अभिव्यक्ति अथवा क्षोभ या पसन्दगी. की प्रतिक्रिया मात्र मानते हैं और बताते हैं कि ये प्रतिक्रियाएँ भी लोकव्यवहार के अनुसार उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार, न तो कोई मौलिक नैतिक-प्रत्यय है और न नैतिक माने जाने वाले प्रत्ययों का कोई मूल्यात्मक अर्थ ही है। सभी नैतिक-प्रत्यय सामाजिक-परम्पराओं की सीखी हुई संवेगात्मक अभिव्यक्तियों के ही रूप हैं। (आ) नैतिक-सन्देहवाद की मनोवैज्ञानिक युक्ति __ मनोवैज्ञानिक आधार पर नैतिक प्रतिमान के प्रति सन्देहात्मक दृष्टिकोण रखने वालों में प्रमुख हैं-व्यवहारवाद के प्रणेता वाट्सन और मनोविश्लेषण-सम्प्रदाय के प्रवर्तक फ्रायड। .. वाट्सन की दृष्टि में मानवीय व्यवहार यान्त्रिक एवं अन्ध है। वे अपने अध्ययन को व्यवहार के बाह्य प्रकट स्वरूप तक ही सीमित रखते हैं। यदि उनके लिए नैतिकता का कोई स्थान हो सकता है, तो वह इसी बाह्य यान्त्रिक एवं अन्ध व्यवहार पर आधारित है। यदि उनके लिए नैतिकता का - कोई अर्थ हो सकता है, तो वे उसे बाह्य प्रकट व्यवहार तक ही सीमित रखते हैं। यदि उनके लिए नैतिकता का अर्थ स्थान हो सकता है, तो वह इसी बाह्य यान्त्रिक एवं अन्ध व्यवहार में ही हो सकता है, लेकिन प्रयोजन, * लक्ष्य अथवा चेतन उद्देश्यों से रहित व्यवहार में नैतिकता को स्वीकार करना हास्यास्पद होगा, क्योंकि फिर तो हवा का बहना और पानी का गिरना भी नैतिकता की सीमा में आ जाएगा। यदि वाट्सन की दृष्टि में