________________ जैन धर्म एवं दर्शन-489 जैन- आचार मीमांसा -21 अहिंसा कों सदाचार की कसौटी माना जा सकता है। पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धांत और जैनधर्मदर्शन नैतिक–निर्णय की दृष्टि से कर्म के शुभत्व और अशुभत्व का विचार करने के लिए नैतिक-प्रतिमान के विषय में पाश्चात्य-आचारदर्शन में काफी गहराई से विचार किया गया है, अतः तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से यह विचारणीय है कि पाश्चात्य आचारदर्शन में स्वीकृत नैतिक-प्रतिमानों का सामान्यरूप से भारतीयदर्शन और विशेषरूप से जैनदर्शन से क्या सम्बन्ध हो सकता है? पाश्चात्य-परम्परा में प्रारम्भ से ही नैतिक-प्रतिमान के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रहे हैं। प्रथम तो यह कि कुछ विचारकों ने तो किसी भी नैतिक-प्रतिमान को स्वीकार ही नहीं किया है। कुछ विचारकों ने नैतिक-प्रतिमान को तो स्वीकार किया, लेकिन वह नैतिक-प्रतिमान क्या है, इन विषय में उनमें काफी मतभेद हैं। पाश्चात्य-विचारकों के विभिन्न सिद्धान्तों का निर्माण किया है, उन सबका विस्तृत एवं गहन चिन्तन तो यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी उन विभिन्न धारणाओं के साथ जैन एवं अन्य दर्शनों का क्या सम्बन्ध हो सकता है, इस पर संक्षिप्त विचार करना उचित होगा। सर्वप्रथम 'नैतिक-सन्देहवाद' को ही लें / नैतिकसन्देहवाद और जैनआचारदर्शन - नैतिक-सन्देहवाद की विचारधारा भारत और पाश्चात्य देशों में प्राचीन समय से चली आ रही है। भारत के चार्वाक दार्शनिक और ग्रीस के सोफिस्ट विचारक इस विचार-परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। * भारतीय परम्परा में भी नैतिक-सन्देहवाद सम्बन्धी विचार प्रचलित थे, ऐसे सन्दर्भ जैन, बौद्ध और वैदिक-ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। __ जैन आचार्यों ने सूत्रकृतांग एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इस विचारधारा का उल्लेख किया है। इस विचारधारा के अनुसार धर्म (उचित) और अधर्म (अनुचित) की शंका में नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि यह सुखों की उपलब्धि में बाधक है, गधे के सींग के समान धर्म और अधर्म का कोई अस्तित्व ही नहीं है। महाभारत में भी यक्ष के प्रश्नों के उत्तर में युधिष्ठिर ने यही कहा था कि तर्क के द्वारा धर्माधर्म का निर्णय करना सम्भव नहीं