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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-713 जैन- आचार मीमांसा-245 विनयशील नहीं है, उसका कैसा तप और कैसा धर्म ?36 दशवैकालिकसूत्र के अनुसार, जिस प्रकार वृक्ष के मूल से स्कन्ध, स्कन्ध से शाखाएँ, शाखाओं से प्रशाखाएँ और फिर क्रम से पत्र, पुष्प, फल एवं रस उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार धर्मवृक्ष का मूल विनय है और उसका अन्तिम फल, एवं रस मोक्ष है।" श्रमण-साधकों में दीक्षापर्याय के आधार पर वन्दन किया जाता है, सभी पूर्वदीक्षित साधक वन्दनीय होते हैं। जैन और बौद्ध-दोनों परम्पराओं में श्रमण-जीवन की वरिष्ठता और कनिष्ठता ही वन्दन का प्रमुख आधार है, यद्यपि दोनों परम्पराओं में दीक्षा या उपसम्पदा की दृष्टि से वरिष्ठ श्रमणी को भी कनिष्ठ या नवदीक्षित श्रमण को वंदन करने का विधान है। गृहस्थसाधकों के लिए सभी श्रमण, श्रमणी तथा आयु में बड़े गृहस्थ वंदनीय हैं। वन्दन के सम्बन्ध में बुद्ध-वचन है कि पुण्य की अभिलाषा करता हुआव्यक्ति वर्ष भर: जो कुछ यज्ञ व हवन लोक में करता है, उसका फल पुण्यात्माओं के अभिवादन के फल का चौथा भाग भी नहीं होता, अतः सरलवृत्ति महात्माओं को अभिवादन करना ही अधिक श्रेयस्कर है।38 सदा वृद्धों की सेवा करने वाले और अभिवादनशील पुरुष की चार वस्तुएँ वृद्धि को प्राप्त होती हैं - आयु, सौन्दर्य, सुख तथा बल। धम्मपद का यह श्लोक किंचित् परिवर्तन के साथ मनुस्मृति में भी पाया जाता है। उसमें कहा है कि अभिवादनशील और वृद्धों की सेवा करनेवाले व्यक्ति की. आयु, विद्या, कीर्ति और बल-ये चारों बातें सदैव बढ़ती रहती हैं। 40 4. प्रतिक्रमण मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण किया जाता है, अथवा दूसरों के द्वारा कराया जाता है और दूसरे लोगों के द्वारा आचरित पापाचरण का जो अनुमोदन किया जाता है, उन सबकी निवृत्ति के लिए कृत पापों की आलोचना करना प्रतिक्रमण है। आचार्य हेमचन्द्र प्रतिक्रमण का निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि शुभ योग से अशुभयोग की ओर गए हुए अपनेआपको पुनः शुभयोग में लौटा लाना प्रतिक्रमण है। आचार्य हरिभद्र ने प्रतिक्रमण की व्याख्या में इन तीन अर्थों का निर्देश किया है - (1) प्रमादवशस्वस्थान से परस्थान (स्वधर्म से परस्थान, परधर्म) में गए हुए साधक का पुनः स्वस्थान पर लौट आना-यह प्रतिक्रमण है। अप्रमत्त चेतना का स्व-चेतना-केन्द्र में स्थित होना स्वस्थान है, जबकि चेतना का बहिर्मुख होकर पर-वस्तु पर केन्द्रित होना पर-स्थान है। इस प्रकार, बाह्यदृष्टि से अन्तर्दृष्टि की ओर आना प्रतिक्रमण है। (2) क्षयोपशमिक-भाव से औदयिक-भाव में परिणत हुआ साधक जब पुनः औदयिक-भाव से क्षयोपशमिक-भाव में लौट आता है, तो यह भी प्रतिकूल गमन के कारण प्रतिक्रमण कहलासा है। (3) अशुभ आचरण से निवृत्त होकर मोक्षफलदायक शुभ आचरण में निःशुल्कभाव से प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है। - आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिक्रमण के निम्न पर्यायवाची नाम दिए हैं - (1) प्रतिक्रमण'पापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर आत्मशुद्धि के क्षेत्र में लौट आना, अथवा परस्थान में मए
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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