________________ जैन धर्म एवं दर्शन-712 जैन- आचार मीमांसा -244 व्यावहारिक-भक्ति है। वास्तविक भक्ति तो आत्मा को मोक्षपथ में योजित करना है, जो राग-द्वेष एवं सर्व विकल्पों का परिहार करके विशुद्ध आत्मतत्त्व से योजित होना है, यही वास्तविक भक्ति -योग है। ऋषभ आदि सभी तीर्थंकर इसी भक्ति के द्वारा परमपद को प्राप्त हुए हैं। 26 इस प्रकार, भक्ति या स्तवन मूलतः आत्मबोध है, वह अपना ही कीर्तन और स्तवन है। जैन-दर्शन में भक्ति के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय देवचन्द्रजी लिखते हैं- 27 अज-कुल-गत केशरी लहेरे, निज पद सिंह निहाल। तिम प्रभु भक्ति भवी लहेरे, आतम शक्ति संभाल // 3. वन्दन _ यह तीसरा आवश्यक वन्दन है। साधना के आदर्श के रूप में तीर्थंकर देव की उपासना के पश्चात् साधनामार्ग के पथ-प्रदर्शक गुरु की विनय करना वन्दन है। वन्दन मन, वचन और काया का वह प्रशस्त व्यापार है, जिससे पथ-प्रदर्शक गुरु एवं विशिष्ट साधनारत साधकों के प्रति श्रद्धा और आदर प्रकट किया जाता है। इसमें उन व्यक्तियों को प्रणाम किया जाता है, जो साधना-पथ पर अपेक्षाकृत आगे बढ़े हुए हैं। वन्दन के सम्बन्ध में यह भी जान लेना आवश्यक है कि वन्दन किसे किया जाए? आचार्य भद्रबाहु ने स्पष्ट रूप से यह निर्देश किया है कि गुणहीन एवं दुराचारी अवंद्य व्यक्ति को वन्दन करने से न तो कर्मों की निर्जरा होती है, न कीर्ति ही, प्रत्युत् असंयम और दुराचार का अनुमोदन होने से कर्मों का बंध होता है। ऐसा वन्दन व्यर्थ का काय-क्लेश है। 1 आचार्य ने यह भी निर्देश किया है कि जो व्यक्ति अपने से श्रेष्ठजनों द्वारा वन्दन कराता है, वह असंयम में वृद्धि करके अपना अधःपतन करता है। 32 जैन-विचारधारा के अनुसार, जो चारित्र एवं गुणों से सम्पन्न हैं, वे ही वन्दनीय हैं। द्रव्य (बाह्य) और भाव (आंतर)-दोनों दृष्टियों से शुद्ध संयमी पुरुष ही वन्दनीय है। आचार्य भद्रबाहु ने यह निर्देश किया है कि जिस प्रकार वही सिक्का ग्राह्य होता है, जिसकी धातु भी शुद्ध हो और मुद्रांकन भी ठीक हो, उसी प्रकार द्रव्य और भाव-दोनों दृष्टियों से शुद्ध व्यक्ति ही वन्दन का अधिकारी होता है। वन्दन करने वाला व्यक्ति विनय के द्वारा लोकप्रियता प्राप्त करता है। 34 भगवतीसूत्र के अनुसार, वन्दन के फलस्वरूप गुरुजनों के सत्संग का लाभ होता है। सत्संग से शास्त्र-श्रवण, शास्त्र-श्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान और फिर क्रमशः प्रत्याख्यान, संयम-अनास्रव, तप, कर्मनाश, अक्रिया एवं अन्त में सिद्धि की उपलब्धि हो जाती है। 35 वन्दन का मूल उद्देश्य है-जीवन में विनय को स्थान देना। विनय को जिन-शासन का मूल कहा गया है / सम्पूर्ण संघ-व्यवस्था विनय पर आधारित है। अविनीत न तो संघ-व्यवस्था में सहायक होता है और न आत्मकल्याण ही कर सकता है। आवश्यकनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि जिनशासन का मूल विनय है, विनीत ही सच्चा संयमी होता है। जो