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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-714 जैन- आचार मीमांसा-246 हुए साधक का पुनः स्वस्थान में लौट आना / (2) प्रतिचरण-हिंसा, असत्य आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, सत्य एवं संयम के क्षेत्र में अग्रसर होना। (3) परिहरण - सब प्रकार से अशुभ प्रवृत्तियों एवं दुराचरणों का त्याग करना। (4) वारण - निषिद्ध आचरण की ओर प्रवृत्ति नहीं करना। बौद्ध-धर्म में प्रतिक्रमण के समान की जाने वाली क्रिया को प्रवारण कहा गया है। (5) निवृत्ति-अशुभ भावों से निवृत्त होना। (6) निन्दा-गुरुजन, वरिष्ठ-जन अथवा स्वयं अपनी ही आत्मा की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ आचरणों को बुरा समझना तथा उसके लिए पश्चाताप करना / (7) गर्हा-अशुभ आचरण को गर्हित समझना, उससे घृणा करना। (8) शुद्धि-प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा आदि के द्वारा आत्मा पर लगे दोषों से आत्मा को शुद्ध बनाता है, इसलिए उसे शुद्धि कहा गया है। प्रतिक्रमण किसका-स्थानांगसूत्र में इन छह बातों के प्रतिक्रमण का निर्देश है - (1) उच्चार-प्रतिक्रमण-मल आदि का विसर्जन करने के बाद ईर्या (आने-जाने में हुई जीवहिंसा) का प्रतिक्रमण करना उच्चार-प्रतिक्रमण है। (2) प्रश्रवण-प्रतिक्रमण- पेशाब करने के बाद ईर्या का प्रतिक्रमण करना प्रश्रवण-प्रतिक्रमण है। (3) इत्वर-प्रतिक्रमण - स्वल्पकालीन प्रतिक्रमण करना इत्वर-प्रतिक्रमण है। (4) यावत्कथिक-प्रतिक्रमण-सम्पूर्ण जीवन के लिए पापसे निवृत्त होना यावत्कथिक-प्रतिक्रमण है। (5) यत्किंचिन्मिथ्या- प्रतिक्रमण-सावधानीपूर्वक जीवन . व्यतीत करते हुए भी प्रमाद अथवा असावधानी से किसी भी प्रकार का असंयमरूप आचरण हो जाने पर तत्काल उस भूल को स्वीकार कर लेनाऔर उसके प्रति पश्चाताप करना यत्किंचिन्मिथ्याप्रतिक्रमण है। (6) स्वप्नांतिक-प्रतिक्रमण-विकार-वासनारूप कुस्वप्न देखने पर उसके सम्बन्ध में पश्चाताप करना स्वप्नान्तिक-प्रतिक्रमण है। यह विवेचना प्रमुखतः साधुओं की जीवनचर्या से सम्बन्धित है। आचार्य भद्रबाहु ने जिन-जिन तथ्यों का प्रतिक्रमण करना चाहिए, इसका निर्देश आवश्यकनियुक्ति में किया है। उनके अनुसार, (1) मिथ्यात्व, (2) असंयम, (3) कषाय एवं (4) अप्रशस्त कायिक, वाचिक एवं मानसिक-व्यापारों का प्रतिक्रमण करना चाहिए / प्रकारान्तर से आचार्य ने निम्न बातों का प्रतिक्रमण करना भी अनिवार्य माना है - (1) गृहस्थ एवं श्रमण-उपासक के लिए निषिद्ध कार्यों का आचरण कर लेने पर, (2) जिन कार्यों के करने काशास्त्र में विधान किया गया है, उन विहित कार्यों का आचरण न करने पर, (3) अश्रद्धा एवं शंका के उपस्थित हो जाने पर और (4) असम्यक् एवं असत्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने पर अवश्य प्रतिक्रमण करना चाहिए। ____ जैन-परम्परा के अनुसार, जिनका प्रतिक्रमण किया जाना चाहिए, उनका संक्षिप्त वर्गीकरण इस प्रकार है (अ) 25 मिथ्यात्वों, 14 ज्ञानातिचारों और 18 पापस्थानों का प्रतिक्रमण सभी को करना चाहिए।
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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