________________ जैन धर्म एवं दर्शन-703 जैन- आचार मीमांसा-235 8. माल्यं - फूलों की माला धारण करना। 9. बीजन - पंखे आदि से हवा लेना या करना। - 10. सन्निधि - दूसरे दिन के लिए भोजन आदि का संग्रह करना। 11. गृहीपात्र - गृहस्थों के बर्तन में भोजन ग्रहण करना। 12. राजपिण्ड - राजा के लिए बनाया गया पौष्टिक भोजन ग्रहण करना। 13. किमिच्छक - दान-दानशाला आदि ऐसे स्थानों से आहार ग्रहण करना, जहाँ पुछकर इच्छा अनुसार आहार आदि दिये जाते हों। 14. संबाधन - शरीर के सुख के निमित्त तेल-मर्दन करवाना। 15. दन्तधावन - शोभा के लिए मंजन आदि से दातों को साफ करना या चमकाना। ..16. संप्रश्न - गृहस्थों से उनकी पारिवारिक-बाते पुछना अथवा अपनी सुन्दरता के विषय में पुछना। 17. देह-प्रलोकन - दर्पण आदि में अपना रूप देखना। 18. अष्टापद - जुआं खेलना। 19. नालिक - चौपड़ या पासा आदि खेलना। 20. छत्रधारण - गर्मी या वर्षा आदि से बचने के लिए या सम्मान–प्रतिष्ठा के लिए छत्र आदि धारण करना। 21. चिकित्सा - रोग या व्याधि के प्रतिकार के लिए चिकित्सा करना। 22. उपानह - जूते, खड़ाऊ आदि पहनना। 23. जोत्यारम्भ - दीपक, चूल्हा या ताप आदि सुलगाना। 24. शय्यातर-पिण्ड - मुनि जिसके मकान में ठहरा हो, उसके यहाँ से आहार आदि ग्रहण करना। - 25. आसंदी - बुनी हुई कुर्सी या पलंग आदि पर सोना-बैठना। _26. निषद्या - बिना किसी आवश्यक परिस्थिति के गृहस्थ के घर में बैठना। 27. गात्रमर्दन - पीठी-उबटन आदि लगाना। '. 28. गृहीवैयावृत्य - गृहस्थों से किसी प्रकार की सेवा लेना। . 29. जात्याजीविका - सजातीय या सगोत्रीय बताकर आहार आदि