________________ जैन धर्म एवं दर्शन-698 जैन - आचार मीमांसा -230 चिकित्सा के सम्बन्ध में अधीर न होकर उस रोग की वेदना को समभावपूर्वक सहन करे। - 17. तृण-परीषह - तृण आदि की शय्या में सोने से तथा मार्ग में नंगे पैर चलने से तृण या कांटे आदि के चुभने की वेदना को समभाव से सहन करे। ___18. मल-परीषह - वस्त्र या शरीर पर पसीने एवं धूल आदि के कारण मैल जम जाए, तो भी उद्विग्र न होकर उसे सहन करे। 19. सत्कार-परीषह - जनता द्वारा मान-सम्मान के प्राप्त होने पर भी प्रसन्न या खिन्न न होकर समभाव रखे। 20. प्रज्ञा–परीषह - भिक्षु के बुद्धिमान होने के कारण लोग आकर उससे विवादादि करें, तो भी खिन्न होकर यह विचार नहीं करे कि इससे तो अज्ञानी होना अच्छा था। 21. अज्ञान-परीषह - यदि भिक्षु की बुद्धि मन्द हो और शास्त्र आदि का अध्ययन न कर सके, तो भी खिन्न नहीं होते हुए अपनी साधना में लगे रहना चाहिए। 22. दर्शन-परीषह - अन्य सम्प्रदायों और उनके महन्तों का आडम्बर देखकर यह विचार नहीं करना चाहिए कि देखो इनकी कितनी प्रतिष्ठा है और शुद्ध मार्ग पर चलते हुए भी मेरी कोई प्रतिष्ठा नहीं है। इस प्रकार, आडम्बरों को देखकर उत्पन्न हुई अश्रद्धा को मिटाना दर्शन-परीषह है। श्रमण-कल्प जैन आचार-दर्शन में श्रमण के लिए दस कल्पों का विधान है। कल्प (कप्प) शब्द का अर्थ है- आचार-विचार के नियम / कल्प शब्द न केवल जैन-परम्परा में आचार के नियमों का सूचक है, वरन् वैदिक-परम्परा में भी कल्प शब्द आचार के नियमों का सूचक है। वैदिक-परम्परा में कल्पसूत्र नाम के ग्रन्थ में गृहस्थ और त्यागी-ब्राह्मणों के आचारों का वर्णन है। जैन-परम्परा में निम्न दस कल्प माने गए हैं - (1) आचेलक्य-कल्प, (2) औदेशिक-कल्प, (3) शय्यातर-कल्प, (4) राजपिण्ड-कल्प, (5)